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________________ १२८ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन के उत्पन्न होने की प्रक्रिया देखी जाती है। इस ‘भव-चक्र' को बौद्धानुयायी माला बनाकर घूमाते रहते हैं ताकि संसार की नश्वरता हमेशा ध्यान में रहे। उपर्युक्त वर्णित द्वादशनिदान जन्म-मरण चक्र का ही नाम प्रतीत्यसमुत्पाद है जो बौद्ध दर्शन का आधारपीठ है। प्रतीत्यसमुत्पाद का अर्थ होता है- सापेक्ष कारणतावाद। प्रतीत्य अर्थात् किसी वस्तु की प्राप्ति होने पर और समुत्पाद अर्थात् अन्य वस्तु की उत्पत्ति यानी किसी वस्तु की प्राप्ति होने पर अन्य वस्तु की उत्पत्ति प्रतीत्यसमुत्पाद है। माध्यमिकवृत्ति में कहा गया है-इस चीज के होने पर यह चीज होती है अर्थात् जगत की वस्तुओं या घटनाओं में सर्वत्र यह कार्य-कारण का नियम जागरुक है।९ तात्पर्य यह है कि कारण के रहने से ही कार्य होगा अर्थात् अविद्या के रहने पर ही संस्कार होगा। संस्कार के रहने से ही विज्ञान होगा और विज्ञान के रहने से ही नामरूप। इस प्रकार जन्म ग्रहण करने से ही जरा तथा मरण होगा। अत: संसार में जो भी कार्य है वह अकारण नहीं है, किसी भी घटना की उत्पत्ति स्वत: नहीं होती। सबका होना प्रत्यय या कारण के अधीन है। अत: प्रत्यय या कारण का सिद्वान्त ही प्रतीत्यसमुत्पाद है। प्रतीत्यसमुत्पाद के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए डॉ साम्तानी ने कहा है- प्रतीत्यसमुत्पाद का नियम अटल और अमिट है। संसार के सभी तत्त्व नियम के वशीभूत हैं। भूत, वर्तमान और भविष्य इन तीनों ही कालों में यह नियम निर्बाध लागू होता है। यह अनादि और अनन्त है।५० _प्रतीत्यसमुत्पाद की श्रृंखला का प्रारम्भ अविद्या से होता है, अत: अविद्या सर्वथा विचारणीय प्रत्यय है। अविद्या के कारण ही प्राणियों का नाना योनियों में संसरण, आवागमन होता है। किन्तु जन्म-मृत्यु का मूल कारण एकमात्र अविद्या ही है ऐसा स्पष्ट उल्लेख कहीं नहीं मिलता है । आचार्य बुद्धघोष ने कहा है कि प्रकृतिवादियों (सांख्याचार्यो) की प्रकृति के समान अविद्या लोक का मूल कारण नहीं है, क्योंकि अविद्या के आरम्भ का पता नहीं चलता, जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि इसके पहले अविद्या न थी, इसके बाद वह उत्पन्न हुई५१। इससे यह स्पष्ट होता है कि बुद्ध ने आदिकाल की खोज का प्रयत्न ही नहीं किया और चार आर्य सत्य सम्बन्धी अज्ञान रूपी अविद्या को मानव की दुःख परम्परा की जाननी घोषित कर दिया। इस प्रकार अविद्या और तृष्णा से संचालित मनुष्य नाना योनियों में भटकता रहता है, किन्तु अविद्या के नष्ट होने से तृष्णा भी स्वयं नष्ट हो जाती है एवं संस्कार भी अनुत्पादक हो जाते हैं। इस तरह भवचक्र की परम्परा विघटित हो जाती है। प्रतीत्यसमुत्पाद पर ही बौद्ध दर्शन के अन्य सिद्धान्त भी आधारित हैं, यथा-अनात्मवाद, क्षणभंगवाद, शून्यवाद आदि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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