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जैन एवं बौद्ध योग का तत्त्वमीमांसीय आधार
१२७ जाता है। भोग के प्रति लिप्सा ही तृष्णा है तथा इसका क्षय ही निर्वाण है। सच्चासुख तो भोग से विरक्त होने में है। तृष्णा वेदना के कारण होती है।
९. उपादान - उपादान का अर्थ होता है तृष्णा की बहुलता। युवक की बीस या तीस की अवस्था में विषय की कामना प्रबल-इच्छाओं की परिपूर्ति के लिए उद्योग करता है। यही उपादान है । उपादान तृष्णा के कारण होता है। मनुष्य चार प्रकार के उपादानों को ग्रहण करता है-कामोपादान, दृष्टियुपादान, शीलोपादान, आत्मोपादान।
१०. भव - यह वह अवस्था है जब आसक्ति के वश में होकर मनुष्य विभिन्न प्रकार के भले-बुरे कर्मों का अनुष्ठान करता है। इन्हीं कर्मों के कारण मनुष्य को नया जन्म मिलता है। नवीन जन्म का कारण वर्तमान जीवन में सम्पादित कार्यकलाप ही होता है। पूर्वजन्म के संसार के समान ही 'भव' होता है। यही पुनर्जन्म है। यह चक्र अनादि एवं अनवरत चलता रहता है। भव उपादान के कारण होता है। इसका अन्त ही निर्वाण है।
११. जाति - जाति अर्थात् जन्म। भविष्य जन्म में मनुष्य की वह दशा जब वह माता के गर्भ में आता है और अपने दुष्कृत या सुकृत फलों को भोगने की योग्यता पाता है। अत: जाति को पंचस्कन्धों के स्फुरण की अवस्था माना गया है। यही व्यक्ति का वस्तुत: शरीर धारण है। भव और जाति में बड़ा सूक्ष्म भेद है। भव पूर्वजन्म को ग्रहण करना है। व्यक्ति भव चक्र में पड़कर शरीर धारण करता है। इसी शरीर धारण करने की क्रिया का नाम जाति है। यह भव के कारण होता है।
१२. जरा-मरण - उत्पन्न स्कन्धों के परिपाक का नाम 'जरा' तथा उसके विनाश का नाम 'मरण' है। यदि हम सामान्य तौर पर कहें तो जरा का अर्थ बुढ़ापा है और मरण का अर्थ है मृत्यु। जो जन्म लेता है. वह बुढ़ापा को प्राप्त होता है तथा एक दिन मरता है। जन्म लेने के बाद उसके अंगों-प्रत्यंगो का निर्माण होता है तथा निर्माण के बाद क्षय प्रारम्भ हो जाता है। यही क्षय या विनाश जरा कहलाती है। इस तरह जन्म और मरण की धारा निरन्तर चलती रहती है। यही बन्धन है, इससे छुटकारा पाना ही मोक्ष है।
इस प्रकार समझना चाहिए कि सभी दुःखों का कारण अविद्या है। अविद्या से जरामरण तक बारह कड़िया हैं, जिनमें अविद्या और संस्कार का सम्बन्ध पूर्वजन्म से होता है तथा जाति और जरा-मरण का सम्बन्ध भविष्य जीवन से होता है। शेष आठ वर्तमान जन्म से सम्बन्धित होते हैं। इनकी संख्या के आधार पर इन्हें द्वादशनिदान कहते हैं। भव यानी संसार की सारी गतिविधियाँ इन्हीं पर आधारित होती हैं। इसीलिए इन्हें भव चक्र कहते हैं। इन्हें प्रतीत्यसमुत्पाद भी कहा जाता है, क्योंकि बारह कड़ियों में से एक के बाद दूसरी
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