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________________ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन सम्यक् - दृष्टि, सम्यक्-संकल्प, सम्यक् वाक्, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् - आजीव, सम्यक्- व्यायाम, सम्यक् स्मृति, सम्यक् - समाधि । इन सबकी चर्चा पूर्व के अध्याय में की जा चुकी है। अनात्मवाद १३० ५३ भगवान् बुद्ध अनात्मवादी थे । अर्थात् आत्मा के अस्तित्व में उनका विश्वास नहीं था। उन्होंने आत्मा की सत्ता की अवहेलना करते हुए मज्झिमनिकाय में कहा है कि जो यह मेरी आत्मा अनुभव करनेवाली है, अनुभव का विषय है और जहाँ-तहाँ अपने बुरे कर्मों के विषयों को अनुभव करती है, यह मेरी आत्मा नित्य, ध्रुव, शाश्वत तथा अपरिवर्तनशील है, अनन्त वर्षों तक वैसी ही रहेगी- हे भिक्षुओं! यह भावना बिल्कुल बालधर्म है । ५२ हम जिसे नित्य, ध्रुव, शाश्वत और अपरिवर्तनशील समझते हैं, वह अनित्य, अध्रुव, अशाश्वत और परिवर्तनशील है। रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान सारे धर्म अनात्म हैं। इतना ही नहीं बुद्ध ने चक्षु आदि इन्द्रियाँ, उनके विषय, उनसे होनेवाले ज्ञान, मन, मानसिक धर्म और मनोविज्ञान आदि सबको अनित्य, दुःखात्मक तथा अनात्म घोषित किया है। पर, मन में सवाल उत्पन्न होता है कि 'आत्मा' जिसे नित्य ध्रुव माना गया उसे बुद्ध ने अनात्म घोषित किया, आखिर क्यों ? इसकी स्पष्टता भगवान् बुद्ध और भिक्षु बच्चगोत्त के बीच हुई वार्तालाप से होती है। एक समय बच्चगोत्त ने पूछा- भगवन् ! प्रकृति किस तरह स्थित है- क्या आत्मा है ? यह सुनकर बुद्ध चुप रह गये। तब बच्चगोत्त ने प्रश्न पूछा-भगवन्! क्या आत्मा नित्य है ? बुद्ध पुनः चुप ही रहे। बुद्ध को चुप रहते देखकर 'बच्चगोत्त तो चला गया, किन्तु उनके शिष्यों में श्रेष्ठ आनन्द ने बुद्ध से उनके मौन रहने का कारण पूछा। तब बुद्ध ने कहा- हे आनन्द ! यदि मैं यह उत्तर देता कि आत्मा नित्य है, तो इससे उन श्रमणों और ब्राह्मणों के सिद्धान्त का समर्थन होता जो स्थिरता या नित्यता में विश्वास करते हैं।.. .......... यदि मैं यह कहता कि आत्मा नहीं है तो उन श्रमणों और ब्राह्मणों के सिद्धान्त का समर्थन होता है जो शून्यवाद में विश्वास करते हैं । ५४ दूसरा आचार्य नागार्जुन ने कहा है कि जो आत्मा को देखता है उसी पुरुष का 'अहं' के लिए सदा स्नेह बना रहता है, स्नेह से तृष्णा उत्पन्न होती है जो दोषों को ढ़क लेती है। गुणदर्शी पुरुष इस विचार से कि 'विषय मेरे हैं', साधनों को ग्रहण करता है । अत: जब तक यह आत्माभिनिवेश है तब तक यह संसार है । आत्मा के रहने पर ही 'पर' का ज्ञान होता है। 'स्व' और 'पर' के विभाग से राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है और राग-द्वेष के कारण ही समस्त दोष उत्पन्न होते हैं। अतः इनको हटाने से ही सभी दोषों का निराकरण हो सकता है ५५ | इस तरह बुद्ध ने सर्व अनात्म का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है और आत्मा को सभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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