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________________ जैन एवं बौद्ध योग का तत्त्वमीमांसीय आधार १२५ यह संसार जलते हुए भवन के समान है, तब इसमें हँसी क्या हो सकती है?४७ अत: बुद्ध ने इस संसार में प्रथम सत्य के रूप में दुःख को प्रतिपादित किया। यह वह दुःख है जिसे साधारणजन प्रतिदिन अनुभव करते हैं, परन्तु उससे उद्विग्न नहीं होते। उसके सामने सिर झुकाकर खड़े हो जाते हैं। किन्तु विवेकी पुरुष की दृष्टि में यह संसार दु:खमय है। द्वितीय आर्य सत्य-दुःख के कारण हैं दुःख की उत्पत्ति सकारण है, अकारण नहीं। संसार में ऐसी कोई भी घटना नहीं होती जिसका कोई कारण न हो। प्रत्येक कार्य का कोई न कोई कारण होता है और प्रत्येक कारण कार्य होता है। इसी कार्य-कारण नियम-सूत्र में सारा संसार बन्ध है। अतः यदि दुःख की सत्ता है तो फिर इसका कारण भी होगा। दु:ख के कारण पर प्रकाश डालते हुए भगवान् बुद्ध ने कहा है कि हे भिक्षुओं! दुःख समुदय दूसरा आर्य सत्य है। दुःख का वास्तव हेतु तृष्णा है जो बारम्बार प्राणियों को उत्पन्न करती है, विषयों के राग से युक्त है तथा उन विषयों का अभिनन्दन करनेवाली है। यहाँ और वहाँ सभी जगहों पर अपनी तृप्ति खोजती रहती है। यह तृष्णा तीन प्रकार की है- कामतृष्णा, भवतृष्णा तथा विभवतृष्णा। कामतृष्णा - जो तृष्णा नाना प्रकार के विषयों की कामना करती है। भवतृष्णा - इस संसार की सत्ता बनाये रखनेवाली तृष्णा भवतृष्णा है। विभवतृष्णा- विभव का अभिप्राय होता है संसार का नाश। संसार के नाश की इच्छा उसी प्रकार दुःख उत्पन्न करती है, जिस प्रकार उसके शाश्वत होने की अभिलाषा। तृष्णा का समावेश द्वादशनिदान में ही हो जाता है। बुद्ध ने द:ख के कारणों की एक लम्बी श्रृंखला प्रस्तुत की है जिसे दुःख-समुदय का बारह अंग कहा जाता है। जो निम्नलिखित है १. अविद्या- अविद्या का अर्थ होता है- विद्या का अभाव अर्थात् अज्ञान। आर्य सत्यों के ज्ञान का अभाव ही सही मायने में अज्ञान है, जिसके कारण मनुष्य दुःखद को सुखद, विनाशी को अविनाशी तथा अनात्म को आत्म समझ बैठता है। परन्तु जब वस्तुओं के दुःखद, विनाशी और अनात्म रूप का ज्ञान हो जाता है तो व्यक्ति का वस्तु के प्रति मोह भंग हो जाता है। अज्ञान से मोह और मोह से ममता उत्पन्न होती है। अत: अज्ञान या अविद्या ही सभी अनर्थों की जड़ है। २. संस्कार- पूर्वजन्म के कर्मों का जो प्रभाव वर्तमान जीवन तक आता है उसे संस्कार कहते हैं। तात्पर्य है संस्कार पूर्वजन्म की कर्मावस्था है जिसके कारण हमने पापपुण्य रूप कर्म किये और परिणामस्वरूप अच्छा या बुरा फल भोग रहे हैं। कर्म के आधार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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