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________________ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन चन्द्रकीर्ति ने कहा है कि जिन सत्यों को केवल आर्य ही समझते हैं, उन्हें आर्य कहते हैं। आर्य कौन होते हैं? इसके सम्बन्ध में आचार्य वसुबन्धु ने अभिधर्मकोशभाष्य में कहा है कि वे आँख की तरह होते हैं जिन्हें छोटे से कष्ट का भी अनुभव होता है, जैसे आँख में ऊन की एक छोटी कणिका पड़ जाने से ही उसे कष्ट पहुँचता है। अन्य लोग हथेली की तरह होते हैं जिन्हें बड़ा से बड़ा कष्ट भी उद्विग्न नही कर पाता। हथेली पर एक कणिका क्या बल्कि मोटा-सा धागा भी पड़ा हो तो उसे क्या कष्ट होगा ? ४३ १२४ आर्य सत्य चार हैं, जिनका प्रथम उपदेश भगवान् बुद्ध ने सारनाथ में अपने पाँच शिष्यों को दिया था। चार आर्य सत्य निम्न हैं १. सर्व दुःखम् संसार दुःख से परिपूर्ण है। दुःख के कारण हैं। दुःखों का नाश संभव है। ४. दुःख निरोधगामिनी प्रतिपद दुःख नाश के उपाय | ये चार आर्य सत्य ही तथागत-धर्म और दर्शन के मूलाधार हैं। ऐसी मान्यता है कि भगवान् बुद्ध ने इन सत्यों को सर्वप्रथम संसार के सामने प्रस्तुत किया, परन्तु व्यासभाष्य में स्पष्ट रूप से आया है कि अध्यात्मशास्त्र चिकित्साशास्त्र की तरह चतुर्व्यूह है । जिस प्रकार चिकित्साशास्त्र में रोग, रोग हेतु, आरोग्य अर्थात् रोग का नाश तथा भैषज्य अर्थात् रोग को दूर करने की दवा है, उसी प्रकार अध्यात्मशास्त्र में भी संसार यानी दुःख, संसार - हेतु यानी दुःख के कारण, मोक्ष यानी दुःख का नाश तथा मोक्षोपाय- ये चार सत्य बताये गये हैं। ** जिस प्रकार वैद्य अपनी दवा के प्रयोग से रोगी के रोगों का नाश कर देते हैं, उसी प्रकार तत्त्वज्ञानी भी उपाय बतलाकर संसार के दुःखों का नाश कर देते हैं, वैद्यकशास्त्र की इस समता के कारण ही बुद्ध महाभिषक वैद्यराज कहे गये हैं। *५ प्रथम आर्य सत्य-संसार दुःख से परिपूर्ण है २. दुःख समुदय ३. दुःख निरोध - संसार में चारों ओर दुःख ही दुःख व्याप्त है। जन्म लेना दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, शोक दुःख है, विलाप करना दुःख है, पीड़ा होना दुःख है, चिन्तित होना, व्यग्र होना, परेशान होना दुःख है, इच्छा की पूर्ति न होना दुःख है, प्रिय से वियोग दुःख है, अप्रिय का संयोग दुःख है। संक्षेप में यदि कहा जाए तो पंच उपादान या शरीर ही दुःख है। *६ अत: यह संसार भव-ज्वाला से प्रदीप्त भवन के समान है, परन्तु मूढ़-जन इसके स्वरूप को न जानकर ही तरह-तरह के भोग-विलास की सामग्री एकत्र करते हैं। परिश्रम से पैदा की गयी भोग सामग्री सुख तो क्या दुःख ही पैदा करती है। धम्मपद में कहा गया है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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