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________________ जैन एवं बौद्ध योग का तत्त्वमीमांसीय आधार १२३ कर्म और आत्मा का सम्बन्ध अनादि काल से चला आ रहा है। जो अनादि होता है उसका अन्त नही होता। फिर कर्मबन्ध से आत्मा किस प्रकार छूटती है। इस समस्या का समाधान करते हुए मुनि नथमल कहते हैं अनादि का अन्त नहीं होता, यह सामुदायिक नियम है और जाति से सम्बन्ध रखता है, व्यक्ति विशेष पर लागू नहीं भी होता। प्राक्भाव अनादि है, फिर भी उसका अन्त होता है। स्वर्ण और मृत्तिका, घी और दूध का सम्बन्ध अनादि है फिर भी वे पृथक् होते हैं। ऐसे ही आत्मा और कर्म के अनादि सम्बन्ध का अन्त होता है। परन्तु यह ध्यान देने की बात है कि इसका सम्बन्ध प्रवाह की अपेक्षा अनादि है, व्यक्तिश: नहीं। आत्मा से जितने कर्म पुद्गल चिपटते हैं, वे सब अवधि सहित होते हैं । कोई भी एक कर्म अनादिकाल से आत्मा के साथ घुल-मिलकर नहीं रहता। आत्मा मोक्षोचित सामग्री पा, अनास्रव बन जाती है, तब नये कर्मों का प्रवाह रुक जाता है, संचित कर्म तपस्या द्वारा टूट जाते हैं, आत्मा मुक्त हो जाती है। इस तरह जैन चिन्तकों ने जीव और अजीव इन दो मौलिक तत्त्वों के बीच सम्बन्ध माना है। यही सम्बन्ध जीव और उसके अनन्त चतुष्टयरूप का घात करता है और वह बन्धन में आ जाता है। कर्म-पद्गल से युक्त जीव मनसा, वाचा, काया से कर्म करते हैं और निरंतर कर्म-पद्गल का बन्धन करते रहते हैं। योग के द्वारा इस कर्मबन्ध की प्रक्रिया को रोककर पन: शुद्धभाव को प्राप्त किया जा सकता है। कर्मबन्ध को रोकना एवं कर्मक्षय की प्रक्रिया को अपनाना तभी सम्भव है जब व्यक्ति इन अवधारणाओं को भलीभाँति समझ सके। बौद्ध योग का तत्त्वमीमांसीय आधार तत्त्वमीमांसा दार्शनिकों के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषय रहा है, परन्तु भगवान् बुद्ध प्राय: इसके प्रति उदासीन रहे हैं । इसका यह अर्थ नहीं किया जा सकता है कि बौद्ध विचारणा में तत्त्वमीमांसा सम्बन्धी चिन्तन नहीं हुआ है। उनका सम्पूर्ण दार्शनिक चिन्तन चार आर्य सत्य पर आधारित है और उसी आर्य सत्य में तत्त्वमीमांसीय अवधारणा भी सनिहित है। आर्य सत्य भगवान् बुद्ध ने जिन बातों को जीवन के लिए उपयोगी समझा उन्हें आर्य सत्य के नाम से सम्बोधित किया। वे महापरिनिब्बानसुत्त में कहते हैं – भिक्षुओं! इन चार आर्यसत्यों को भली-भाँति न जान पाने के कारण ही मेरा और तुम्हारा संसार में जन्म-मरण और दौड़ना दीर्घकाल से जारी रहा। इस आवागमन के चक्र में हम सभी दुःख भोगते रहे, विभिन्न योनियों में भटकते रहे। अब इसका ज्ञान हो गया। दुःख का समूल विनाश हो गया, अब आवागमन नहीं होना है। २ 'आर्य-सत्य' नाम की सार्थकता पर प्रकाश डालते हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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