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________________ जैन एवं बौद्ध योग का तत्त्वमीमांसीय आधार ११७ दूर तक जाना और शंका-समाधान करके पुन: अपने स्थान पर आ जाना, इस शरीर की विशेषता है। तैजस शरीर - यह एक प्रकार के विशिष्ट पुद्गल परमाणुओं (तेजो वर्गणा) से बनता है। यह औदारिक शरीर और कार्मण शरीर के बीच की एक आवश्यक कड़ी है। पं० सुखलालजी के शब्दों में जो शरीर तेजोमय होने से खाये हुए आहार आदि के परिपाक का हेतु और दीप्ति का निमित्त हो वह तैजस है। अन्न पाचन कार्य के अतिरिक्त इसका अन्य कार्य शाप और अनुग्रह भी है।३२ । कार्मण शरीर - यह आन्तरिक सूक्ष्म शरीर है जो मानसिक, वाचिक और कायिक सभी प्रकार की प्रवृत्तियों का मूल है। यह आठ प्रकार के कर्मों से बनता है। उपर्युक्त सभी प्रकार के शरीर में हम इन्द्रियों द्वारा मात्र औदारिक शरीर का ही ज्ञान कर सकते हैं। बाकी के शरीर इतने सूक्ष्म होते हैं कि हमारी इन्द्रियाँ उनका ग्रहण नहीं कर सकतीं। कोई वीतरागी ही उनका प्रत्यक्ष कर सकता है। ये शरीर उत्तरोत्तर सूक्ष्म होते हैं।४ तैजस और कार्मण शरीर तो प्रत्येक जीव के साथ रहते हैं। अधिक से अधिक एक साथ चार शरीर हो सकते हैं।३५ जब जीव के तीन शरीर होते हैं तो तैजस, कार्मण और औदारिक या तैजस, कार्मण और वैक्रिय और जब चार होते हैं तो तैजस, कार्मण, औदारिक और वैक्रिय या तैजस, कार्मण, औदारिक और आहारक होते हैं। पाँच शरीर एक साथ नही होते, क्योंकि वैक्रिय लब्धि और आहारक लब्धि का प्रयोग एक साथ नहीं हो सकता है। कर्म सिद्धान्त कर्मवाद का एक सामान्य नियम है-पूर्वकृत कर्मों के फल को भोगना तथा नए कर्मों का उपार्जन करना। इसी परम्परा में बन्धा हुआ प्राणी जीवन व्यतीत करता है, किन्तु प्रश्न उठता है कि कर्मवाद में कहीं पर व्यक्ति को अपनी स्वतंत्रता के उपयोग का भी अवसर मिलता है अथवा वह मशीन की तरह पूर्व कर्मों के फल को भोगता हआ तथा नये कर्मबन्ध को प्राप्त करता हुआ गतिशील रहता है। यदि प्राणी को कहीं कोई स्वतंत्रता न हो और वह मशीन की तरह ही कर्म के द्वारा चालित हो तब तो कर्मवाद और नियतिवाद तथा पुरुषार्थवाद में अन्तर क्या रहेगा? किन्तु इच्छा-स्वातंत्र्य का जिस रूप में निरूपण जैन परम्परा में हुआ है वह इस प्रकार है १. किए कर्मों का फल कर्ता को भोगना ही पड़ता है। २. पूर्वकृत किये कर्मों के फल को वह शीघ्र या देर से भोग सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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