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काल
परिवर्तन का जो कारण हो वह अद्धासमय या काल कहलाता है। जैन ग्रन्थों में काल की व्याख्या दो दृष्टियों से की गयी है- व्यवहार और परमार्थ। प्रत्येक द्रव्य परिवर्तित होता रहता है। परिवर्तनों के होते हुए भी उसकी जाति का विनाश नहीं होता । इस प्रकार के परिवर्तन परिणाम कहलाते हैं। इन परिणामों का जो कारण है वह काल है। यह व्यावहारिक दृष्टि से काल की व्याख्या है। प्रत्येक द्रव्य और पर्याय की प्रतिक्षण भावी स्वसत्तानुभूति वर्तना है। इस वर्तना का कारण काल है। यह काल की पारमार्थिक व्याख्या है।
जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
पुद्गल तथा आत्मा
मुक्त जीव का सम्बन्ध पुद्गल से नहीं रह जाता, किन्तु संसारी जीव हमेशा ही पुद्गल के साथ होता है, पुद्गल से प्रभावित होता है । संसारी आत्मा का पुद्गल के साथ संयोग इसलिए होता है कि कर्म पौद्गलिक है। कर्म की पौद्गलिकता इस बात से प्रमाणित होती है कि जीव या आत्मा को उनसे सुख-दुःख का अनुभव होता है और जिसका अनुभव होता है वह पौगलिक होता है, जैसे- खाद्य पदार्थ । अतः आत्मा और पुद्गल का सम्बन्ध अनादि है। गोम्मटसार के जीवकाण्ड में कहा गया है कि पुद्गल ही शरीर निर्माण का कारण है । ३२ आहारक वर्गणा से औदारिक शरीर, वैक्रिय शरीर और आहारक शरीर तीन प्रकार के शरीर बनते हैं तथा श्वासोच्छवास का निर्माण होता है। मनोवर्गणा से मन निर्माण होता है। कर्म वर्गणा से कार्मण शरीर बनता है। शरीर, भाषा, मन आदि सबको जैनाचार्यों ने भौतिक तत्त्व (पुद्गल) माना है।
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औदारिक शरीर - तिर्यञ्च और मनुष्य का स्थूल शरीर औदारिक शरीर कहलाता है । उदर से युक्त होने के कारण इसका नाम औदारिक पड़ा है। दूसरे शब्दों में जिस शरीर का छेदन - भेदन किया जा सके वह औदारिक है। रक्त, मांस आदि इस शरीर के लक्षण होते हैं।
वैक्रिय शरीर- देवगति एवं नरकगति में उत्पन्न होनेवाले जीव वैक्रिय शरीरवाले होते हैं। विभिन्न आकारों में परिवर्तित होना, जैसे- कभी छोटा, कभी मोटा, कभी पतला आदि रूपों को धारण करना इस शरीर की विशेषता होती है। इसमें रक्त, मांस आदि का सर्वथा अभाव रहता है।
आहारक शरीर - मुनिजनों को जब किसी विषय पर सन्देह होता है तो वे उस दूर करने के लिए अपनी विशेष लब्धि से छोटा-सा शरीर धारण कर लेते हैं।
सन्देह को
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