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जैन एवं बौद्ध योग का तत्त्वमीमांसीय आधार
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आत्मा पौद्गलिक कर्मों के साथ होता है - जैसा कि चार्वाकी कर्म की सत्ता में विश्वास नहीं करते। परन्तु जैन मान्यतानुसार कर्म है और पौद्गलिक है। यह जीव के साथ होता है। कर्मों के कारण ही सुख-दु:ख आदि विभेद देखे जाते हैं। कर्मों से प्रभावित होकर ही जीव सांसारिक बन्धन में पड़ा रहता है और कर्मों से छूट जाने पर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।
अजीव
जिसमें बोधगम्यता, चेतना आदि का अभाव होता है वह अजीव कहलाता है। अजीव शब्द से ही प्रतीत होता है कि जो कुछ जीव में हैं उसका अभाव होना। अजीव के चार प्रकार हैं- १. धर्म, २. अधर्म, ३. आकाश, ४. पुद्गल।
धर्म - जो अजीव, पुद्गल आदि की गति में सहायता प्रदान करता है उसे धर्म तत्त्व कहते हैं।२७ जैसे मछली पानी में स्वत: तैरती है, किन्तु पानी के अभाव में वह कदापि नहीं तैर सकती। यदि उसे उस स्थान पर रख दिया जाए जहाँ पानी न हो तो निश्चित ही उसकी गति रुक जायेगी। पानी स्वयं मछली को तैरने के लिए तैयार नहीं करता, फिर भी पानी के अभाव में मछली तैर नहीं सकती। यही गति तत्त्व है।
अधर्म - अधर्म अगति अथवा स्थिति में सहायक होता है।२८ जीव और पुद्गल जब स्थिति की दिशा में पहुँचनेवाले होते हैं तब अधर्म उनकी सहायता करता है। यह सम्पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त होता है। इसके बिना स्थिति नहीं हो सकती, जिस प्रकार धर्म के बिना गति नहीं हो सकती। चलता हुआ पथिक छाया को देखकर विश्राम करने लगता है। छाया पथिक को बुलाती नहीं है, फिर भी छाया देखकर पथिक विश्राम करता है। इसलिए यहाँ छाया स्थिति का या अगति का कारण बनती है।
आकाश- अवगाह या अवकाश देनेवाला तत्त्व आकाश कहलाता है।२९ इसमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म तथा काल आश्रय पाते हैं। आकाश का काम अन्य सभी को आश्रय देना है। इसके दो भाग हैं-लोकाकाश तथा अलोकाकाश। आकाश के जिस भाग में धर्म-अधर्म तथा पुण्य एवं पाप के फल नहीं होते उसे अलोकाकाश कहते हैं।
पुद्गल - अन्य दर्शन जिसे जड़ तत्त्व कहते हैं, जैन दर्शन में वह पुद्गल कहलाता है। पुद्गल शब्द 'पुद्' और 'गल' के संयोग से बना है। जिसमें पुद् का अर्थ होता है 'पूरण' या 'वृद्धि' तथा गल का अर्थ होता है 'गलन'। इस प्रकार जो द्रव्य पूरण और गलन के द्वारा बदलता रहता है उसे पुद्गल कहते हैं। यह रूपी होता है। इसके चार धर्म होते हैं-स्पर्श, रस, गंध और वर्ण।३१
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