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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
आत्मा प्रत्याक्षादि प्रमाणों से प्रमाणित होता है . विशेषावश्यकभाष्य में भगवान् महावीर ने गौतम के द्वारा आत्मा की सत्ता पर संशय प्रकट करने पर कहा है"हे गौतम! यदि संशयी ही नहीं हो तो मैं हूँ या नहीं हूँ।" यह संशय कहाँ से उत्पन्न होता है? यदि तुम स्वयं ही अपने खुद के विषय में सन्देह कर सकते हो तो फिर किसमें संशय न होगा।२५ यहाँ पाश्चात्य दार्शनिक डेकाटें जैन दर्शन के निकट प्रतीत होते हैं।
आत्मा चेतनायुक्त है- न्याय-वैशेषिक चेतना को आत्मा का आगन्तुक गुण मानते हैं। नैयायिकों की यह मान्यता है कि जिस प्रकार अग्नि के संयोग से घट में लाल रंग उत्पन्न हो जाता है। उसी प्रकार आत्मा में चेतना गुण उत्पन्न होता है। इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख-दुःख, ज्ञान आदि आत्मा के गुण हैं।२६ किन्तु जैन दर्शन तो चेतना को आत्मा का स्वभाव मानता है।
___ आत्मा कूटस्थ है - ऐसा बहुत से लोग मानते हैं, किन्तु जैन दर्शन यह मानता है कि जीव परिणामी होता है। इसमें परिवर्तन होता है, क्योंकि जीव में गुण और पर्याय होते हैं। चेतना इसका गुण है, किन्तु जीव में जो बच्चा, युवा, बूढ़ी स्त्री, पुरुष आदि भिन्नताएँ देखी जाती हैं, ये सब जीव के पर्याय हैं, जो बदलते रहते हैं। अत: यह परिणामी है।
आत्मा कर्ता है - जैन दर्शन के अनुसार जिस समय हम जीव को परिणामी मान लेते हैं उसी समय वह कर्ता भी सिद्ध हो जाता है। जीव के साथ कुछ परिवर्तन देखे जाते हैं, जैसे - वह कभी गाता है, कभी रोता है, कभी बैठता है, कभी सोता है। यदि जीव यह सब नहीं करता है तो कौन करता है? अत: जीव कर्ता है।
आत्मा भोक्ता है - जीव सुख-दुःख का भोग करता है।
जीव स्वदेह परिमाण है - जीव अपने को शरीर के अनुसार विस्तृत अथवा संकुचित करके रखता है। कर्म के अनुसार उसे चींटी का शरीर मिले अथवा हाथी का, दोनों में ही वह रह लेता है। इससे यह ज्ञात होता है कि जीव में चेतना के साथ-साथ विस्तार भी होता है।
आत्मा प्रत्येक शरीर में भिन्न है - जैसा कि अद्वैतवेदान्त की मान्यता है कि आत्मा एक आध्यात्मिक तत्त्व है, जो एक है। किन्तु माया या भ्रम के कारण हमें अनेक रूपों में दिखाई पड़ती है। यहाँ जैनदर्शन की मान्यता है कि यदि सभी जीव एक ही होते तो जो भिन्नताएँ हमें देखने को मिलती हैं, अनुभव करते हैं, यह कैसे होता है? कोई रोता है, कोई हँसता है, कोई गाता है इत्यादि।
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