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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
३. बाह्य परिस्थिति एवं अपनी आन्तरिक शक्ति को ध्यान में रखते हुए प्राणी नए कर्मों का उपार्जन रोक सकता है।
४. किन्तु ऐसा भी नहीं है कि प्राणी के मन में जो आये वही करे।
इन बातों से ऐसा लगता है कि कर्मवाद मे इच्छा - स्वातंत्र्य तो है, किन्तु सीमित है। यहाँ नियतिवाद में बंधे हुए व्यक्ति की तरह कर्मवादी पूर्णरूपेण परतन्त्र नहीं है।
कर्म का स्वरूप
जैन परम्परा में कर्म को पुद्गल परमाणुओं का पिण्ड माना गया है। कर्म वह है जिसके कारण साधन तुल्य होने पर भी फल का तारतम्य अथवा अन्तर मानव जगत में दृष्टिगत होता है। उस तारतम्य अथवा विविधता के कारण का नाम कर्म है। प्रत्येक प्राणी का सुख-दुःख तथा तत्-सम्बन्धी अन्यान्य अवस्थाएं उसकी कर्म की विचित्रता एवं विविधता पर आधारित होती हैं। सम्पूर्ण लोक कर्मवर्गणा तथा नो- कर्मवर्गणा इन दोनों प्रकार के परमाणुओं से पूर्ण है। जीव अपने मन, वचन और काय की प्रवृत्तियों से इन परमाणुओं को ग्रहण करता रहता है । मन, वचन, और काय की प्रवृत्ति तभी होती है जब जीव के साथ कर्म सम्बद्ध हो । जीव के साथ कर्म तभी सम्बद्ध होता है जब मन, वचन और काय की प्रवृत्ति होती है। इस प्रकार प्रवृत्ति से कर्म और कर्म से प्रवृत्ति की परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है। कर्म और प्रवृत्ति के इस कार्य कारणभाव को दृष्टि में रखते हुए पुद्गल परमाणुओं के पिण्डरूप कर्म को द्रव्यकर्म तथा राग- - द्वेषादि रूप प्रवृत्तियों को भावकर्म कहा गया है। द्रव्यकर्म और भावकर्म का कार्य-कारण भाव मुर्गी और अण्डे के समान अनादि है । ३७
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कर्म की पौगलिकता
अन्य परम्पराओं में कर्म को संसार अथवा वासना या क्रिया रूप में निरूपित किया गया है। किन्तु जैन दर्शन कर्म को भौतिक पदार्थ मानता है । भौतिक पदार्थ के लिए जैन मतावलम्बी पुद्गल शब्द का प्रयोग करते हैं। कर्म की पौद्गलिकता की पुष्टि के लिए जैन दार्शनिकों ने प्रमाण भी प्रस्तुत किये हैं
१. कर्म से आत्मा पर आवरण पड़ जाता है और वह बन्धन में आ जाता है। आत्मा चैतन्य होता है। यदि कर्म भी चैतन्य होता तो वह आत्मा का गुण होता, उसके लिए बन्धन का कारण नहीं बनता। अतः कर्म भौतिक है, पौगलिक है।
२. शरीर का कारण कर्म है । शरीर पौगलिक होता है। इसलिए उसका कारण भी पौगलिक है।
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