SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९४ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन योगविंशिका आचार्य हरिभद्र असाधारण प्रतिभा के धनी और उद्भट् विद्वान् थे। इन्होंने अपने योग सम्बन्धी ग्रन्थों में अनेक दृष्टियों से योग का विश्लेषण किया है जो जिज्ञासुओं तथा साधकों के लिए वास्तव में हितकर और उपयोगी है। योगविंशिका बीस पद्यों की एक छोटी सी रचना है। आचार्य हरिभद्र ने ऐसी बीस-बीस पद्यों की बीस रचनाएँ की हैं। योगविंशिका उनमें से सतरहवीं है। इसकी रचना आर्या या गाथा छन्द में हुई है। योगविंशिका की पहली गाथा में ही आचार्य ने योग को परिभाषित करते हुए कहा है- यद्यपि मोक्ष से जोड़ने के कारण सभी प्रकार का परिशुद्ध धर्म-व्यापार, धर्माराधना का कार्यक्रम, योग है; किन्तु स्थान, आसन तथा ध्यान आदि से सम्बद्ध साधनाक्रम को विशेषरूप से योग समझना चाहिए। स्थान, ऊर्ण, अर्थ, आलम्बन तथा अनालम्बन के रूप में योग के पाँच प्रकार बताये गये हैं, जिनमें स्थान और ऊर्ण का सम्बन्ध क्रिया की प्रधानता से है । इसलिए इसे क्रियायोग की संज्ञा से विभूषित किया गया है। अर्थ, आलम्बन तथा अनालम्बन का सम्बन्ध ज्ञान, चिन्तन एवं मनन आदि के साथ है, इसलिए यह ज्ञानप्रधान है । अत: इसे ज्ञानयोग कहा गया है। इन सबके अतिरिक्त आचार्य ने इन पाँचों में से प्रत्येक की इच्छा, प्रवृत्ति, स्थिरता तथा सिद्धि रूप में चार-चार भेद बतलाये हैं। इस तरह योग के बीस भेद हो जाते हैं। आगे पुनः आचार्य ने योग के चार और भेदों की चर्चा की है, जिसे उन्होंने प्रीतिअनुष्ठान, भक्तिक- अनुष्ठान, आगम-अनुष्ठान तथा असंग-अनुष्ठान कहा है। अतः पूर्वोक्त बीस भेदों में से प्रत्येक के चार-चार भेद और हो जाते हैं। इस प्रकार योग के अस्सी भेदों का वर्णन योगविंशिका में देखने को मिलता है। इस पर सुप्रसिद्ध विद्वान् तथा नैयायिक उपाध्याय यशोविजय की संस्कृत टीका उपलब्ध होती है। योगदृष्टिसमुच्चय आचार्य हरिभद्र की योग सम्बन्धी रचनाओं में योगदृष्टिसमुच्चय का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें २२७ पद्य हैं। इसकी भाषा संस्कृत है। इसमें आध्यात्मिक विकास की भूमिकाओं का तीन प्रकार से वर्गीकरण किया गया है और कुछ नई विशेषताओं के साथ योगबिन्दु में वर्णित विषयों की पुनरावृत्ति भी की गयी है। जो सम्भवत: अब तक के योग सम्बन्धी ग्रन्थों में अन्यत्र उपलब्ध न हो। आचार्य हरिभद्र ने आध्यात्मिक विकास की भूमियों के प्रथम प्रकार को योगदृष्टि कहा है, जिसमें योग की प्रारम्भिक अवस्था से लेकर अन्त तक की भूमिकाओं को क्रमशः दिखलाया गया है और उसे आठ योगदृष्टियों के रूप में विभक्त किया है। वे आठ दृष्टियाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy