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________________ जैन एवं बौद्ध योग-साहित्य निम्न हैं- मित्रा, तारा, बला, दीपा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा तथा परा।२४ द्वितीय प्रकार में उन्होंने आध्यात्मिक विकास की भूमियों को तीन भागों में विभक्त किया है- इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग । तृतीय प्रकार में उन्होंने योगाधिकारी के रूप में गोत्रयोगी, कुलयोगी, प्रवृत्तचक्रयोगी और सिद्धयोगी के रूप में चार प्रकार के योगियों का वर्णन किया है। ___ इस तरह उत्तरोत्तर विकास पाते आध्यात्मिक ज्ञान, चिन्तन-क्रम तथा उससे फलित होते यम-नियमादि योगाङ्कों तथा परिष्कृत होते जीवन के माध्यम से आचार्य ने जो विचार-सामग्री प्रस्तुत की है, वह वास्तव में बहुत ही उपयोगी है। इस ग्रन्थ पर स्वयं ग्रन्थकार आचार्य हरिभद्र ने स्वोपज्ञवृत्ति की रचना की है। इनके अतिरिक्त एक और वृत्ति उपलब्ध होती है जिसकी रचना साधुराजगणि ने की है, जिसमें ४०५ श्लोक प्रमाण उपलब्ध होते हैं।२५ योगबिन्दु इस ग्रन्थ में आचार्य ने योग के विभिन्न पहलुओं पर बड़ा ही सुन्दर विवेचन किया है। इसमें ५२६ संस्कृत श्लोक हैं। इसमें आचार्य ने परम्परागत योग की चर्चा करते हुए उनके साथ जैन योग की समालोचना भी की है। जिससे रचनाकार के व्यापक दृष्टिकोण, असाम्प्रदायिक चिन्तन तथा सर्वोपरि भावना का पूर्ण परिचय मिलता है। योगबिन्दु में आचार्य ने सर्वप्रथम योग के अधिकारी का वर्णन किया है। योग के अधिकारी के सम्बन्ध में बतलाया है कि वे दो प्रकार के होते हैं- चरमावर्ती और अचरमावर्ती। चरमावर्ती योगी ही मोक्ष के अधिकारी होते हैं। जिस जीव का काल मर्यादित हो गया है, जिसने मिथ्यात्व ग्रन्थि का भेदन किया है, जो शक्लपक्षी है, वही चरमावर्ती मोक्ष का अधिकारी होता है। ठीक इसके विपरीत जो विषय में, वासना में और काम-भोगों में लिप्त रहते हैं, वें अचस्मावर्ती की श्रेणी में आते हैं। अचरमावर्ती को ही भवाभिनन्दी की संज्ञा दी गयी है। विभिन्न प्रकार के जीव के भेदों के अन्तर्गत अपुनर्बन्धक, सम्यक्-दृष्टि, देशविरति तथा सर्वविरति की चर्चा है । इसी प्रकार चारित्र के विकास हेतु अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षेप आदि पाँच भेदों का वर्णन किया है, जिसके सम्यक् पालन से कर्मक्षय तथा मुक्ति होती है। ये योग के पाँच अंग के रूप में भी जाने जाते हैं। आगे आचार्य ने योग का एक दूसरा प्रकार भी बताया है। उन्होंने लिखा है- तात्त्विक, अतात्त्विक, सानुबन्ध, निरनुबंध, आस्रव तथा अनास्रव आदि एक अपेक्षा से ये योग के छ: भेद हैं।२६ आगे उन्होंने योग-मार्ग का निरूपण करते हुए लिखा है- जो योग-मार्ग के वेत्ता हैं, जिन्होंने तपस्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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