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जैन एवं बौद्ध योग - साहित्य
ग्रन्थकारों में योगीन्दुदेव का अपना एक अलग ही स्थान है। परमात्मप्रकाश अपभ्रंश भाषा में दोहा के रूप में निबद्ध है जो योग-साधना के मार्ग को प्रशस्त करता है। इसका समय लगभग छठी शताब्दी माना गया है। २३ मुख्यतः यह ग्रन्थ योगीन्द्राचार्य ने अपने शिष्य द्वारा किये गये प्रश्नों के उत्तरस्वरूप लिखा है। यह दो भागों में विभाजित है, जिसमें प्रथम भाग, द्वितीय भाग की अपेक्षा अधिक क्रमबद्ध है। इस ग्रन्थ में आचार्य योगीन्दु ने सर्वप्रथम आत्मा के त्रिविध रूपों का परिचय दिया है। तदुपरान्त आत्मसाक्षात्कार की आवश्यकता पर बल देते हुए गूढ़ आध्यात्मिक तत्त्वों का विवेचन किया है। साथ ही मुक्तिमार्ग तथा रत्नत्रय का प्रतिपादन किया गया है। इसमें ३४५ दोहे हैं। परमात्मप्रकाश पर अनेक टीकाएँ लिखी गयी हैं जिनमें ब्रह्मदेव बालचन्द्र पण्डित दौलतराम जी तथा मुनि भद्रस्वामी आदि के द्वारा लिखी गयी टीकाएँ प्रमुख हैं।
योगशतक
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आचार्य हरिभद्र सूरि की योग से सम्बन्धित रचनाओं में योगशतक एक महत्त्वपूर्ण रचना है। जैन परम्परा में आचार्य हरिभद्र का एक विशिष्ट स्थान है। इन्होंने ही सर्वप्रथम 'योग' शब्द का प्रचलन जैन परम्परा में किया। योगशतक, जैसा कि नाम से ही ज्ञात होता है कि इसमें १०१ गाथाएँ सन्निहित हैं। आचार्य हरिभद्र ने योग सम्बन्धी अनेक विषयों की संक्षेप में चर्चा प्रस्तुत कृति में की है । ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही निश्चय एवं व्यवहार योग का स्वरूप निरूपित है। गाथा ३८ से ५० तक में साधक का आध्यात्मिक विकास कैसे संभव है, के विषय में वर्णन किया गया है। गाथा ५९ से ८० तक यह बताया गया है कि साधक को चित्त की स्थिरता के लिए किस तरह रागादि दोषों तथा परिणामों के विषय में चिन्तनमनन करना चाहिए। साथ ही आचार्य हरिभद्र ने साधक की पात्रता की विशेष चर्चा की है । उन्होंने योग का शिक्षण या उपदेश करनेवाले गुरु को उद्दिष्ट करते हुए कहा हैभिन्न-भिन्न साधकों की योग्यता, भूमिका, क्षमता आदि को ध्यान में रखते हुए उन्हें रोगी को देने योग्य औषधि की तरह जिसके लिए जैसा उचित हो उपदेश करना चाहिए । (गाथा, २४)
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इस तरह प्रस्तुत ग्रन्थ में आचार्य हरिभद्र ने योग का स्वरूप, लक्षण, योग के अधिकारी के लक्षण एवं ध्यान रूप योगावस्था की विस्तृत चर्चा की है। योगशतक के अतिरिक्त भी आचार्य हरिभद्र के योग से सम्बन्धित ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, यथा योगविंशिका, योगदृष्टिसमुच्चय, योगबिन्दु, षोडशक आदि। इनका समय ई० सन् ७५७ से ८२७ तक का माना जाता है।
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