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जैन एवं बौद्ध योग-साहित्य
यह ग्रन्थ सम्यक्-दर्शन,३९ सम्यक्-ज्ञान, सम्यक्-चारित्र १ और सम्यक्-तप रूप चार आराधनाओं का अति महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसके अन्तर्गत ध्यान के भेद-प्रभेदों४२ का वर्णन किया गया है। साथ ही इसमें मुनिधर्म का भी विस्तृत विवेचन देखने को मिलता है। तत्त्वार्थसूत्र
तत्त्वार्थसूत्र' भारतीय दार्शनिक विद्या की जैन-शाखा की एक अद्वितीय कृति है। इसके रचनाकार 'उमास्वाति' या 'उमास्वामि' हैं, जिनका समय विक्रम की पहली शती से चौथी-पाँचवी शती के बीच का माना जाता है।१४ उमास्वाति एक ऐसे तत्त्ववेत्ता हैं, जिन्हें जैन परम्परा की दोनों शाखाओं में समान प्रतिष्ठा प्राप्त है। दिगम्बर उन्हें अपनी शाखा का और श्वेताम्बर उन्हें अपनी शाखा का मानते हैं। दिगम्बर परम्परा में वे 'उमास्वामि' तथा 'उमास्वाति के नाम से जाने जाते हैं, तो श्वेताम्बर परम्परा में केवल उमास्वाति के नाम से। गागर में सागर की भाँति सम्पूर्ण जैन दर्शन इस में अनुस्यूत है। यह मोक्ष-मार्ग के प्रतिपादक के रूप में एक अनुपम एवं अनूठा ग्रन्थ है। इसमें दस अध्याय है, जिसमें प्रथम अध्याय में ज्ञान और क्रिया का वर्णन है। द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ एवं पंचम अध्यायों में जीवादि ज्ञेय पदार्थों का वर्णन किया गया है। षष्ठ, सप्तम, अष्टम तथा नवम एवं दशम अध्यायों में चारित्र का वर्णन है।६। खासकर षष्ठ अध्याय में योग१५, योग के भेद१६ तथा सप्तम अध्याय में पंच महाव्रत,१७ नवम अध्याय में तप, तप के भेद, १८ ध्यान, ध्यान के भेद १९ आदि का विश्लेषण है। ये सभी चारित्र से सम्बन्धित हैं। ध्यान मूलत: चारित्र पर ही निर्भर करता है। अत: ध्यान निरूपण में प्राय: चारित्र का ही वर्णन देखने को मिलता है, कारण कि चारित्र के पालन से ही आध्यात्मिक विकास होता है।
इस ग्रन्थ पर दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराओं में अनेक टीकाएँ लिखी गयी हैं। परन्तु अन्तर इतना ही है कि श्वेताम्बर परम्परा में सभाष्य तत्त्वार्थ की व्याख्याओं की प्रधानता है तो दिगम्बर परम्परा में मूलसूत्रों की ही व्याख्याएँ हुई हैं। तत्त्वार्थसूत्र के व्याख्याकारों में बहुत से विशिष्ट व्याख्याकारों के नाम आते हैं, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं- उमास्वाति, गन्धहस्ती (समन्तभद्र और सिद्धसेन के विशेषण), सिद्धसेन, हरिभद्र, यशोभद्र, मलयगिरि, वाचक यशोविजय, पूज्यपाद आदि।
ध्यानशतक
'ध्यामशतक का पूर्व नाम 'ध्यानाध्ययन' है। ध्यानशतक तो अपर नाम है।२० यह जैन योग परम्परा का एक प्राचीन ग्रन्थ है। इसके रचयिता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण माने जाते हैं, जिनका काल ई० की ५ वीं शताब्दी माना जाता है। इसकी भाषा आगम शैली
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