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जेकोबी (Jacobi ), बेलिनी ( Ballini ) और मिरोनी (Mironov) आदि अन्य विद्वानों ने भी प्रसंगवशात् अपने-अपने लेखों में इस विषय का यथासमय थोड़ा बहत विचार किया है। परन्तु इन सब में जैनधर्म के विशिष्ट अभ्यासी डॉ० जेकोबी का परिश्रम विशेष उल्लेख के योग्य है। उन्होंने सबसे पहले हरिभद्र के समय का निर्देश करने वाले पुरातन कथन के सत्य होने में सन्देह प्रकट किया था। सन् १९०५ में भावनगर निवासी जैन गृहस्थ मि० एम्० जी० कापडिया के कुछ प्रश्न करने पर जेकोबी ने इस विषय में विशेष ऊहापोह करना शुरू किया और अन्त में अपने शोध के परिणाम में जो कुछ निष्कर्ष मालूम हुआ, उसको उन्होंने 'बिब्लीओथिका इंडिका' में प्रकाशित उपमितिभवप्रपञ्चकथा की प्रस्तावना में लिपिबद्ध कर प्रकट किया। इसी बीच में डॉ० सतीशचन्द्र विद्याभूषण महाशय की 'मध्यकालीन भारतीय न्यायशास्त्र का इतिहास' (History of the
Mediaval school of Indian Logic ) नामक पुस्तक प्रकट हुई। इस पुस्तक में अन्यान्य प्रसिद्ध जैन नैयायिकों के समान हरिभद्र के समय के विषय में भी विद्याभूषण जी ने अपना विचार प्रदशित किया है । परन्तु १२वीं शताब्दी में होने वाले इसी नाम के एक दूसरे आचार्य के साथ इनकी कुछ कृतियों का सम्बन्ध लगा कर इस विषय में कुछ और उलटी गड़बड़ फैलाने की चेष्टा के सिवा अधिक वे कुछ नहीं कर सके । प्रस्तुत हरिभद्र के उन प्रसिद्ध दार्शनिक ग्रंथों का, जिनका निर्देश आगे किया जायगा, नामोल्लेख तक भी विद्याभूषणजी अपनी इस पुस्तक में नहीं कर सके। इससे यह ज्ञात 1. Ballini, Contributo allo studio della upo Katha etc. (R
Acad dei Lincei, Reudiconti XV ser. 5, a sec. 5, 6, 12,
p. 5. २. 'जैन शासन' 'दीवालीनो खास अंक' ३. जेकोबी और कापडिया के बीच में जो पत्र-व्यवहार इस विषय में हुआ था, वह बंबई से प्रकाशित 'जैन श्वेतांबर कान्फरेन्स हेरल्ड' नामक पत्र के ई. स. १९१५ के जुलाई-अक्टूबर मास के संय क्त अंकों में प्रकट हुआ है।
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