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नवीन संगठन के एक प्रधान व्यवस्थापक कहलाने योग्य हैं । इस प्रकार वे जैनधर्म के पूर्वकालीन और उत्तरकालीन इतिहास के मध्यवर्ती सीमास्तम्भ के समान हैं। उनके समय का यथार्थ निर्णय हो जाने पर सम्पूर्ण जैन इतिहास के सूत्र - पुंज की एक बहुत बड़ी गांठ सुलझ सकेगी। केवल जैन साहित्य और समाज के इतिहास की ही दृष्टि से हरिभद्र के जीवन - समय के निर्णय की उपयोगिता है, यह बात नहीं है; अपितु भारतवर्ष के कई जैनेतर धर्मधुरन्धर आचार्यों तथा गीर्वाणगिरा के कई प्रतिष्ठित लेखकों के समय- विचार की दृष्टि से भी उसकी बहुत उपयोगिता है ।
जैसा कि प्रारम्भ में ही सूचित किया गया है, बड़े दार्शनिक विद्वान् थे और इस विषय के उन्होंने ग्रंथ लिखे हैं । इन ग्रन्थों में उन्होंने भारत के चार्वाक आदि सभी मतों के पुरातन और प्रसिद्ध तत्त्ववेत्ताओं के तात्त्विक विचारों की जगह-जगह आलोचना - प्रत्यालोचना की है । इस कारण हरिभद्र के समय निर्णय से उनके पूर्ववर्ती उन अन्य दार्शनिकों के समय के बारे में भी बहुत सी ज्ञातव्य और निर्णायक बातें मिल सकती हैं और आजतक जो कितनी एक परस्पर विरुद्ध ऐसी आनुमानिक बातें पुरातत्त्वज्ञों के मन को शंकाशील और चिन्तापूर्ण बनाए रही हैं, उनके लिए एक और नई दिशा में प्रयत्न कर संदिग्ध सिद्धान्तों के पुनर्विचार का नया मार्ग मिल सकता है
हरिभद्र एक बहुत अनेक उत्तमोत्तम वैदिक, बौद्ध और
यूरोपियन स्कॉलरों में से शायद सबसे पहले प्रो० पीटर्सन ने अपनी चौथी रिपोर्ट' में 'उपमितिभव प्रपञ्चकथा' नामक धार्मिक नीति के स्वरूप को अनुपम रीति से प्रदर्शित करने वाले संस्कृत साहित्य के एक सर्वोत्तम ग्रन्थ के रचयिता जैन साधु सिद्धर्षि का परिचय लिखते हुए साथ में इन हरिभद्रसूरि के समय का भी उल्लेख किया था ! इसके बाद डॉ० क्लाट' (Klatt ), प्रो० ल्युमन (Leumann) १. द्रष्टव्य, रिपोर्ट, पृष्ठ ५; तथा परिशिष्ट ( Index of Authors ) पृष्ठ ७९ ।
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2. Klatt, Onomasticon.
3. Zeitschrift der Deutschen Morgenl and,
XLIII, A. p. 348.
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