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हरिभद्रसूरि का समय-निर्णय
जैन धर्म के श्वेताम्बर संप्रदाय में हरिभद्र नाम के एक बहुत प्रसिद्ध और महान् विद्वान् आचार्य हुए हैं । उन्होंने संस्कृत और प्राकृत भाषा में धर्म-विचार और दार्शनिक विषय के अनेक उत्तमोत्तम और गम्भीरतत्त्व - प्रतिपादक ग्रंथ लिखे हैं । इन ग्रन्थों में सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, अद्वैत, चार्वाक, बौद्ध, जैन आदि सब दर्शनों और मतों की उन्होंने अनेक तरह से आलोचना- प्रत्यालोचना की है । इस प्रकार के भिन्न-भिन्न मतों के सिद्धान्तों की विवेचना करते समय अपने विरोधी मत वाले विचारों का भी गौरवपूर्वक नामोल्लेख करने वाले और समभाव पूर्वक मृदु और मधुर शब्दों द्वारा विचार-मीमांसा करने वाले ऐसे जो कोई विद्वान् भारतीय साहित्य के इतिहास में उल्लेख किए जाने योग्य हों तो उनमें हरिभद्र का नाम सबसे पहले लिखने योग्य है ।
यों तो जैन इतिहास के पुरातन साधनों को देखने से उनमें हरिभद्र नाम के अनेक आचार्यों के होने का पता मिलता है; परन्तु जिनको उद्देश्य करके इस निबन्ध को लिखना प्रारम्भ किया गया है, उन्हें सबसे पहले होने वाले अर्थात् प्रथम हरिभद्र ही समझना चाहिए | इस लेख का उद्देश्य इन्हीं प्रथम हरिभद्रसूरि के अस्तित्वसमय का विचार और निर्णय करना है ।
हरिभद्रसूरि का प्रादुर्भाव जैन इतिहास में बड़े महत्व का स्थान रखता है । जैन धर्म के — जिसमें मुख्य कर श्वेताम्बर सम्प्रदाय केउत्तरकालीन ( आधुनिक ) स्वरूप के संगठन कार्य में उनके जीवन ने बहुत बड़ा भाग लिया है। उत्तरकालीन जैन साहित्य के इतिहास में वे प्रथम लेखक माने जाने योग्य हैं और जैन समाज के इतिहास में १. द्रष्टव्य, प्रोफेसर पीटर्सन की बंबई प्रान्त के हस्तलिखित पुस्तकों के बारे में लिखी हुई चौथी रिपोर्ट, पृष्ठ (परिशिष्ट ), १३७; तथा पं० हरगोविन्द दास लिखित, संस्कृत 'हरिभद्रसूरिचरित्रम्', पृष्ठ १ ।
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