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होता है कि उनको हरिभद्र के विशाल साहित्य का कुछ भी विवरण मालूम नहीं हो सका । तदनन्तर रसियन विद्वान् डॉ० मिरोनी ने भी अपने 'दिङ्नाग का न्यायप्रवेश और उसपर हरिभद्र की टीका' इस शीर्षक लेख में, (जो बनारस के जैनशासन नामक एक सामयिक पत्र के विशेषांक में छपा है) प्रस्तुत प्रश्न के सम्बन्ध में कुछ मीमांसा की है ।
में
यद्यपि जेकोबी ने, जैसा कि ऊपर कहा गया है, इस विषय कुछ विशेष ऊहापोह कर महत्त्व के मुद्दों का विचार किया है, तथापि हरिभद्र के सभी ग्रन्थों का सूक्ष्मदृष्टि से अवलोकन कर उनमें मिलते हुए आंतर प्रमाणों के खोजने की उन्होंने बिल्कुल चेष्टा नहीं की और इसलिए वे अपने मंतव्य के समर्थनार्थ निश्चयात्मक ऐसे कुछ भी प्रमाण नहीं दे सके। इस प्रकार यह प्रश्न अभी तक बिना हल हुए ही जैसा का वैसा संशयात्मक दशा में विद्यमान है । हरिभद्र के ग्रन्थों का ध्यानपूर्वक निरीक्षण कर उनमें से मिलते हुए आंतर प्रमाणों के आधार पर तथा उपलब्ध बाह्य प्रमाणों का ठीक-ठीक विचार कर, इस प्रश्न का निरकरण करना ही इस लेख का उद्देश्य है ।
हरिभद्रसूरि के समय का निर्णय, मुख्य कर उनके लिखे हुये ग्रंथों में से मिलते हुए साधक-बाधक ऐसे आंतर प्रमाणों पर आधारित है । इसलिये प्रथम यहां पर उनके कुछ प्रसिद्ध ग्रन्थों की नामावली प्रस्तुत: है । हरिभद्रसूरि ने अपने जीवन में जैन साहित्य को जितना पुष्ट किया है उतना अन्य किसी विद्वान् ने नहीं किया । उनके बनाये हुए ग्रन्थों की संख्या बहुत ही बड़ी है ! पूर्व परम्परा के अनुसार, वे १४०० या १४४० अथवा १४४४ ग्रन्थों के प्रणेता कहे जाते हैं । यह संख्या आजकल के लोगों को बहुत ही अधिक और अतिशयोक्ति पूर्ण लगती है : परन्तु साथ में यह बात भी अवश्य ध्यान में रखने लायक है कि इस संख्या के सूचक उल्लेख ८ सौ ९ सौ जितने वर्षों से भी अधिक पुराने मिलते हैं । इस संख्या का अर्थ चाहे जैसा हो; परन्तु इतनी बात तो पूर्ण सत्य
१. इस विषय के उल्लेखों के लिये द्रष्टव्य पं० श्रीहरगोविन्ददास लिखित संस्कृत हरिभद्रसूरिचरित्रम्' पृ० १६-२० ।
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