SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नेमिदूतम् [ ३१ चिताम् -जो देवों द्वारा निर्मित है, तां पुरीम्-उस नगरी को, वासार्थम्रहने के लिए, एहि-आओ, यस्याः-जिस द्वारिका की, वेत्रवत्याः--वेंत की लता की, वप्रप्रान्ते-प्राकार पर्यन्त, जलधेहरि चलोमिपयः वेलासमुद्र की तरंग युक्त मनोहर जल-धारा, रमण्याः -रमणियों की, सभ्र - भंगम्-कटाक्षयुक्त, मुखमिव-मुख की तरह, स्फुरित-शोभित होता है। ____ अर्थः - ( हे नाथ ! ) यदि तुम्हारे अनुसार जीवों की रक्षा करना ही धर्म है तो हम लोगों के प्राणों की भी रक्षा करो, तथा तुम यदुप्रभृतियों की वह नगरी जिसे देवों ने बनाया है उस ( द्वारिका नगरी) को निवास के लिए चलो, जिस द्वारिका के वेत लता की प्राकार पर्यन्त समुद्र की तरंगयुक्त मनोहर जलधारा रमणी के कटाक्षयुक्त मुख की तरह सुशोभित है। अस्मादद्रेः प्रतिपथमधः संचरन् दानवारेः, क्रीडाशैलं विमलमणिभिर्भासुरं द्रक्ष्यसि त्वम् । अन्तः कान्तारतरसगलभूषणैर्यो यदूना मुद्दामानि प्रथयति शिलावेश्मभियौवनानि ॥२७॥ अन्वयः -- त्वम्, अस्मादद्रेः, अधः, प्रतिपथम्, संचरन्, दानवारेः, विमलमणिभिर्भासुरम्, क्रीडाशैलम्, द्रक्ष्यसि, यः, अन्तःकान्तारतरसगलद्भूषणः, शिलावेश्मभिः, यदूनाम्, उद्दामानि, यौवनानि, प्रथयति । अस्मादद्रेः इति । त्वमस्मादद्रेः नाथ त्वं रैवतकादगिरेः । अधः प्रतिपथं सञ्चरन् नीचैः प्रतिमार्ग गच्छन् । दानवारे: विमलमणिभिर्भासुरं हरेः निर्मलरत्नैर्देदीप्यमानम् । क्रीडाशैलं द्रक्ष्यसि केलिगिरिं पश्यसि । यः अन्तःकान्तारतरसगलभूषणैः यो केलिगिरिः पाषाणगृहाणां मध्ये प्रियासम्भोगलीलापत केयुरकुण्डलैः। शिलावेश्मभिः पाषाणगृहै:, सदनैः कन्दराभिरित्यर्थः । यदुनामुद्दामानि यादवानां निबन्धानि, उत्कटानीति भावः । यौवनानि प्रथयति तारुण्यानि विस्तारयति कथयति वा ॥ २६ ॥ शब्दार्थः -- त्वम्--तुम (नेमि ), अस्मादद्रेः- इस पर्वत से, अधःनीचे, प्रतिपथम्--प्रत्येक मार्ग को, संचरन्। -जाते हुए, दानवारे:--भगवान् कृष्ण के, विमलमणिभिर्भासुरम्-निर्मल मणियों से देदीप्यमान्, क्रीडाशैलम्-- केलिगिरि को, द्रक्ष्यसि-देखोगे, यः-जो केलिगिरि, अन्तःकान्तारतरसगलदभूषणै--शिलागृहों के मध्य प्रिया के सम्भोग क्रीड़ा में गिरे हुए आभूषणों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002117
Book TitleNemidutam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVikram Kavi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy