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नेमिदूतम्
अगे, भक्तिच्छेदैः, विरचिताम्, भूतिम्, इव, याम्, आलोक्य, त्वदन्ये, स्वगृहगमनायोत्सुकाः, स्युः ।
__ यामालोक्येति । अन्तविद्युतस्फुरितरुचिरे शुप्रकाशेन्द्रचापे हे नाथ ! मध्येतडिल्लतादीप्तिप्रधाने शोभनप्रकाशः इन्द्रधनुर्यस्मिन् तत्तस्मिन् । अस्मिन् जलदपटले तां बलाकावली एतस्मिन् मेघमालायां तां बकप्रियापंक्ति पश्य अवलोकय आकाशे गजस्याङगे या बकप्रियापंक्तिः नभसि मेघमालायां हस्तिनः शरीरे । भक्तिच्छेदैः विरचितां भूतिमिव रेखाभंगिभिः निमिता मातंगशृङ्गारं यथा, तथा शोभते इत्यर्थः । यामालोक्य यां बकप्रियापंक्ति नभसि वीक्ष्य, त्वदन्ये स्वगृहगमनायोत्सुका. स्युः तवातिरिक्तः अपर. सर्वे जनाः निजमन्दिरप्राप्त्यर्थमुत्कण्ठिताः सन्ति, एकस्त्वमेव स्वगृहगमनायोत्सुको नासि इति भावः ॥ २० ॥
शब्दार्थः - अन्तर्विद्युतस्फुरिरुचिरे–मध्य भाग में चमकते हुए विद्युत कान्ति से, सुप्रकाशेन्द्रचापे-शोभायमान् इन्द्रधनुष की कान्ति से युक्त, अस्मिन् जलदपटले-इस मेघ समूह में, ताम्-उसको, बलाकावलीम् --बकप्रियापंक्ति को, पश्य-देखो, आकाशे-( जो बकप्रियापंक्ति ) आकाश में, गजस्यहाथी के, अङ्ग-शरीर में, भक्तिच्छेदैः-चित्रकारी के द्वारा, विरचिताम्बनाई गई, भूतिम्-सजावट, इव-की तरह (शोभित हो रहा है ), याम्-जिस ( बकप्रियापंक्ति ) को, आलोक्य-देखकर, त्वदन्ये -तुम्हारे अतिरिक्त अन्य सभी, स्वगृहगमनायोत्सुका:-- अपने घर जाने के लिए उत्कण्ठित, स्युः-हैं।
अर्थः - (हे नाथ ! ) मध्यभाग में चमकते हुए विद्युत-कान्ति से शोभायमान् इन्द्रधनुष की कान्ति से युक्त इस मेघ-समूह में उड़ते हुए उस बकप्रियापंक्ति को देखो, जो बकप्रियापंक्ति आकाश में, हाथी के अङ्ग में चित्रकारी के द्वारा बनाई गई सजावट की तरह ( सुशोभित हो रही ) है, जिस ( बक-प्रिया-पंक्ति ) को देखकर तुम्हारे अतिरिक्त अन्य सभी जन अपने घर जाने के लिए उत्कण्ठित हैं।। युक्तं लक्ष्म्यामुदितमनसो यादवेशाः सभाया
मासीनं यं निजपुरि चिरं त्वामसेवन्त पूर्वम् । सम्प्रत्येकः श्रयसि स नगं नाथ ! कि वेत्सि नवं,
रिक्तः सर्वो भवति हि लघुः पूर्णता गौरवाय ॥२१॥
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