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नेमिदूतम्
यक्षेश्वराणां गुह्यकाधिपतीनां वा सा नगरी, मनाग् किञ्चिदपि न कलयति दधाति इत्यर्थः ॥ ७ ॥
शब्दार्थ:- नाथ ! - हे स्वामी !, गिरे: पर्वत के, तुङ्गम् — अत्यन्त ऊँचे,
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शृङ्गम् – शिखर, परिहर- छोड़कर ( त्यागकर ), एहि -आओ, रत्नश्रेणीरचितभवनद्योतिताशान्तरालम् - मणि-समूहों से निर्मित गृह जो प्रकाशित है समस्त दिशाओं में ( ऐसे ), स्वाम् - अपनी पुरीम् - नगरी को, याव:हम दोनों चलें, यस्याः - जिस नगरी की शोभासाम्यम् — शोभा की तुलना में, बाह्योद्यानस्थितहर शिश्चन्द्रिकाधौतहर्म्या - नगर से बाहर के उद्यान में विद्यमान शिवजी के मस्तक पर स्थित चन्द्रमा की ज्योत्स्ना से जहाँ के महल धुल रहे हैं, अलका - कुबेर की अलका नाम की नगरी, मनाग्— अंशमात्र, न - नहीं, दधाति - धारण करती है ।
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अर्थ: - हे नाथ ! पर्वत के अत्यन्त ऊँचे शिखर को त्यागकर आओ तथा विविधमणियों से निर्मित भवनों से, जो समस्त दिशाओं में प्रकाशित हैं, ऐसी अपनी द्वारिका नगरी को हम दोनों चलें, जिसकी कान्ति की तुलना मेंजहाँ के भवन, नगर से बाहर स्थित उद्यान में विद्यमान शिवजी के मस्तक पर स्थित चन्द्रमा की ज्योत्सना से धुलते रहते हैं ऐसी कुबेर की अलका नाम की नगरी भी तुच्छ है ।
टिप्पणी • रत्नश्रेणीरचितभवनद्योतिताशान्तरालम् के द्वारा बाह्योद्यान स्थितहरशिरश्चन्द्रिकाधीत हर्म्या अलका से द्वारिका की विशेषता बतलाई गई है । बाह्यम् —'बहिस्' अव्यय है । इससे 'बहिषष्टिलोपो यञ्च' सूत्र से 'घन् ' प्रत्यय एवं 'टि रूप' 'इस्' का लोप करके 'तद्धितेष्वचामदे:' सूत्र से ञित्वात् वृद्धि करके 'बाह्यम्' रूप बनता है ।
आलोक्येनं तरलत डिताऽऽक्रान्तनीलाब्दमालं,
प्रावृट्कालं विततविकसद्यूथिकाजातिजालम् । अन्तर्जाद्विरहदहनो जीवितालम्बनेऽलं,
न स्यादन्योऽप्यहमिव जनो यः पराधीनवृत्तिः ॥ ८ ॥ अन्वयः तरलताडिता, आक्रान्तनीलाब्दमालम् विततविकसद्यूथिकाजातिजालम्, एनं प्रावृट्कालम्, आलोक्य, अंतर्जाद्विरहदहनः जीवितालम्बने, अहम्, इव, यः, जनः, पराधीनवृत्ति:, ( स ), अलम्, स्याद्, न अन्यः ।
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