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नेमिदूतम्
अर्थः -- काम बाण से सन्तप्त राजीमती ने अपने स्वामी नेमिनाथ से कहा - शरण में आये पीड़ितों की रक्षा करना यही क्षत्रिय का धर्म है, उस हेतु हे प्राणनाथ ! तुम्हारे आश्रित ( रहने वाली मैं ) तुमसे प्रार्थना करती हैं ( कि) मुझ अबला ( राजीमती ) की रक्षा करो। क्योंकि (आप के समान ) गुणी व्यक्ति के पास की गई याचना यदि निष्फल भी हो जाय तो अच्छी है, परन्तु निर्गुणी व्यक्ति के पास की गई सफल याचना भी अच्छी नहीं है।
टिप्पणी - पूर्व श्लोक में राजीमती अपने प्राणनाथ को प्रसन्न करने के लिए पर्वतराज रैवतक से याचना करती है। परन्तु उसने जिसे प्रसन्न करने के लिए पर्वतराज रैवतक से याचना की थी वह उसका प्राणनाथ नेमि था। अतः राजीमती ने स्वयं नेमिनाथ से अपनी रक्षा के लिए कहा। नेमिनाथ गुणवान् थे तथा गुणवान् व्यक्ति से की गई निष्फल याचना भी उत्तम है, न कि नीच व्यक्ति से की गई सफल याचना ।
याञ्चा - याचना अर्थ में विद्यमान 'याच्' धातु से 'यजयाचयतविच्छप्रच्छरक्षो नङ' सूत्र से 'नङ्' प्रत्यय पश्चात् 'स्तोः श्चुनाश्चुः' से श्चुत्व एवं स्त्रीत्व विवक्षा में 'टाप्' करके 'याञ्चा' शब्द बना है ।
तुङ्ग शृंगं परिहर गिरेरेहि यावः पुरी स्वां, ___ रत्नश्रेणीरचितभवनधोतिताशान्तरालम् । शोभासाम्यं कलयति मनाग्नालका नाथ ! यस्याः, __ बाह्योद्यानस्थितहरशिरश्चन्द्रिकाधौतहा ॥७॥
अन्वयः - ( हे ) नाथ ! गिरेः तुंगम्, शृङ्गम्, परिहर, एहि, (तथा ) रत्नश्रेणीरचितभवनद्योतिताशान्तरालम्, स्वां पुरीम्, यावः, यस्याः, शोभासाम्यम्, बाह्योद्यानस्थितहरशिरश्चन्द्रिकाधौतहा, अलका, मनाम्, न, कलयति । ___ तुंगमिति । (हे ) नाथ ! गिरेः तुंगं शृंगं परिहर एहि हे नाथ ! पर्वतस्य अत्युच्चं शिखरं परित्यज आगच्छ इति । रत्नश्रेणीरचितभवनद्योतिताशान्तरालं मणिशृंखलाभिः विनिर्मितानि यानि गृहाणि तैः प्रकाशितानि दिगंतरालानि यया सा ताम् इत्यर्थः । स्वां पुरी निजद्वारिकाम् । यावः गच्छावः । यस्याः द्वारिकायाः शोभासाम्यं, बाह्योद्यान स्थितहरशिरश्चन्द्रिकाधौतहा बहिरारामे वर्तमानस्य शम्भोः मस्तके या ज्योत्स्ना तया प्रक्षालिताट्टालिका। अलका
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