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नेमिदूतम्
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दूरसंस्थे— दूर रहने या अलग रहने ( पर ), किं पुन: - तो फिर ( क्या
कहना ) | अर्थ:
इसके बाद गम्भीर मेघध्वनि से नाचते हुए मयूरों ( तथा ) खिलते हुए कदम्ब पुष्पों से ( युक्त ) पर्वत को देखकर, वैषयिक रागादि से विरत होकर, शान्तिसुख ( मोक्ष ) प्राप्ति में संलग्न अपने स्वामी नेमिनाथ को ( देखकर ), वह राजीमती शोक से विह्वल हो ( मूच्छित होकर ) भूतल पर गिर पड़ी। क्योंकि ( ऐसे समय में जो ) स्त्रियाँ प्रियवियोग में नहीं हों, कदाचित् ( वह भी अपने प्रिय को गले लगाना चाहती हैं । तब ) गले लगाने वाले प्रिय के दूर रहने या अलग रहने पर कहना ही क्या ?
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टिप्पणी कण्ठाश्लेषप्रणयिनि जने किं पुनरसंस्थे— वर्षाकाल में ऐसी स्त्रियां भी जिनका पति पास में है वे भी अपने पति को गले से लगाने को उत्कण्ठित हो जाती हैं, तब वह राजीमती जिसका पति उससे अलग पर्वत पर समाधिस्थ है उसका ऐसे समय में अपने प्रिय को गले लगाने की उत्कण्ठा स्वाभाविक ही है ।
आश्लेषः आश्लेषणम् आश्लेषः - आङ् उपसर्गपूर्वक श्लिष् धातु से भाव में 'घञ्' प्रत्यय । प्रणयी - 'प्रणयमस्यास्तीति' विग्रह में 'अतइनिठनौ' सूत्र से 'इनि' प्रत्यय । दूरसंस्थे— संस्थानं संस्था 'सम्' उपसर्गपूर्वक 'स्था' धातु से भाव में 'आतश्चोपसर्गे' सूत्र से 'अङ्' प्रत्यय |
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तां दुःखार्ता शिशिरसलिलासारसारैः समीरैराश्वास्येव स्फुटितकुटजामोदमत्तालिनादैः । साध्वीमद्रिः पतिमनुगतां तत्पदन्यासपूतः,
अन्वयः
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प्रीतः प्रोतिप्रमुखवचनं स्वागतं व्याजहार ॥ ४ ॥ तत्पदन्यासपूतः, अद्रिः, शिशिरसलिलासारसारैः समीरैः, स्फुटितकुटजामोदमत्तालिनादैः पतिमनुगताम्, दुःखार्ताम्, साध्वीं ताम्, आश्वास्येव प्रीतः प्रीतिप्रमुखवचनम्, स्वागतम्, व्याजहार ।
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तां दुखार्त्तामिति । तत्पदन्यासपूतः नेमिनाथस्य तस्य चरणरचनया पवित्रः इत्यर्थः । अद्रिः पर्वतः । शिशिरसलिलासारसारैः - शीतलजलैः कृतो यः वेगवान् वर्षस्तेन प्रमुखैः । समीर: वायुभिः ।
स्फुटितकुटजामोदमत्तालिनादैः
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