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नेमिदूतम् समासीनम्-उपविष्टमितिभावः । वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयम्-उत्खात केलिसंलग्न-तिर्यग्दन्त-प्रहार-हस्तिविलोकनीयम् । पर्वतशृङ्गसंलग्नं, यस्यां क्रीडायां हस्तिनः तिर्यग्भूय दन्तैः उच्चस्थानेषु प्रहारं कुर्वन्ति तस्यां क्रीडायां संलग्नं दर्शनीयं हस्तिनमिव इति भावः । सजलजलद-श्यामलं जलभृतो यो मेघस्तद्वत् नीलवर्णमित्यर्थः। एनं मुनीशं योगिस्वामिन नेमिनाथम् । ददर्श-दृष्टवती । श्लोकेऽस्मिन् लुप्तोपमालंकारः ॥ २ ॥
शब्दार्थः - सा राजपुत्री-उस राजकुमारी ( राजीमती ) ने, तत्र-पर्वत पर, ध्याननिद्धृतदोषम्-ध्यान के द्वारा राग-द्वेषादि को समाप्त कर, नासान्यस्तानिमिषनयनम्-ध्यानार्थ नासिका पर ( दृष्टि ) टिकाये हुए अपलक नेत्रों वाले, योगासक्तम् -मोक्ष के उपाय में संलग्न, उच्चैः शिखरिणिअत्यन्त उन्नत शिखर पर, समासीनम्-ध्यानस्थ बैठे हुए, वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयम्-तिरछे होकर खेल में टीले पर दांतों से प्रहार करने वाले हाथी के समान देखने योग्य, सजलजलद-श्यामलम्-जल से पूर्ण मेघ कान्ति के सदृश नीलवर्ण ( श्यामवर्ण ) वाले, एनं मुनीशम्-इस मुनिस्वामी ( नेमिनाथ ) को, ददर्श-देखा।
अर्थः - उस राजकुमारी ( राजीमती ) ने पर्वत पर ध्यान के द्वारा रागद्वेषादि को समाप्त करके ध्यानार्थ नासिका पर टिकाये हुए अपलक नेत्रों वाले, मोक्ष के उपाय में संलग्न, अत्यन्त उन्नत शिखर पर ध्यानस्थ बैठे हुए, तिरछे होकर खेल में टीले पर दांतों से प्रहार करने वाले हाथी के समान देखने योग्य, जल से पूर्ण मेघ कान्ति के सदृश श्यामवर्ण वाले, इस मुनि स्वामी ( नेमिनाथ ) को देखा।
टिप्पणी-वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयम्-उत्खात-केलिः शृङ्गाद्यैः वप्रक्रीडा निगद्यते। इति शब्दार्णवः । अर्थात् जिस खेल में पशु सींग या दाँत इत्यादि से प्रहार कर मिट्टी आदि कुरेदें उसे 'वप्रक्रीडा' कहते हैं। परन्तु हलायुध कोश के इस वाक्य "तिर्यग्दन्तप्रहारस्तु गजः परिणमतो मतः" के अनुसार तिरछे होकर प्रहार करने वाले हाथी को 'परिणत' कहा जाता है। इस प्रकार 'परिणत' शब्द से हाथी का बोध हो जाने से पुनः गज पद की योजना करने से पुनरुक्त दोष हो जाता है। उक्त दोष के निवारण के लिए 'परिणत' शब्द का अर्थ संलग्न स्वीकार कर तथा गज के साथ परिणत का कर्मधारय समास मान लेने से पुनरुक्त दोष का निवारण हो जाता है;
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