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द्वारिका वर्णन
द्वारिका का वर्णन करते हुए कवि का कहना है कि द्वारिका की शोभा इतनी सुन्दर है कि उसकी अंश मात्र भी शोभा कुबेर की नगरी 'अलका' में नहीं है
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तुङ्गं शृगं परिहर गिरेरेहि यावः पुरीं स्वां; रत्नश्रेणी रचितभवनद्योतिताशांतरालम् शोभासाम्यं कलयति मनाग्नालका नाथ ! यस्या बाह्योद्यानस्थित हरशिरश्चन्द्रिका-धोतहयि
नेमिदूतम्
॥७॥
क्योंकि जिस द्वारिका में, भगवान् कृष्ण ने स्वयं युद्ध में इन्द्र को पराजित करके देवलोक से पारिजात पुष्प विशेष को लाकर लगाया है, उस द्वारिका की शोभा सचमुच अतुलनीय है
निज्जित्येन्द्रं ससुरमनयत्पारिजातं द्युलोकाद् ॥ १४ ॥
यही नहीं कृष्ण के द्वारा रक्षित होने के कारण द्वारिकावासियों को व्याधि स्पर्श तक नहीं करता, मृत्यु की कथा केवल पुराणों में ही सुनी जाती है, तब उस द्वारिका के विषय में कहना ही क्या
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व्याधिर्देहान्स्पृशति न भयाद्रक्षितुः शार्ङ्गपाणे
मृत्योर्वार्ता श्रवणपथगा कुत्रचिद्वासभाजाम् ॥ ७० ॥
तभी तो कामदेव भी भयरहित होकर अपने धनुष-बाण का परित्याग कर उस द्वारिका में स्वच्छन्द विहार करता है
बाणस्याजी हरविजयिनो वासुदेवस्य यस्यां
प्राप्यासत्ति चरति गतभीः पुष्पचापो निरस्त्रः ।। ८१ ।।
द्वारिका के भवनों की सुन्दरता के विषय में कहना ही क्या । नीले रत्नों से जड़ा हुआ उसका शिखर और नीचे पीत वर्ण की उसकी अट्टालिका तो ऐसी लग रही है, मानों पृथिवी का स्तन ही हो
त्वत्सोधेनासितमणिमयाग्रेण
और द्वारिका नगरी में पुष्प गुच्छों से झुका हुआ भित हो रहा है
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हैमोsraप्रो,
मध्ये श्यामः स्तन इव भुवः शेषविस्तारपाण्डुः ।। १९ ।।
बाल अशोक वृक्ष तथा हाथ से पाये जा सकने वाले छोटा-सा मन्दार वृक्ष तोरण द्वार की तरह सुशो
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