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भूमिका
अन्तस्तापान् मृदुभुजयुगं ते मृणालस्य दैन्यं, म्लानं चैतन्मिहिरकिरणक्लिष्टशोभस्य धत्ते । प्लुष्टः श्वासैविरहशिखिना सद्वितीयस्तवायं,
यास्यत्यूरुः सरसकदलीस्तम्भगौरश्चलत्वम् ।। १०३ ॥ और अब तो नेमि-वियोग की पीड़ा से असहाय बना दी गई 'राजीमती के शरीर में केवल प्राण और लावण्य ही शेष रह गया है' -
यत्सन्तन्प्यानिशमतितरां प्राणलावण्यशेषम् ( ११६ ) । इस काव्य में कवि द्वारा विप्रलम्भ शृंगार का अवसान शान्त रस में करने का प्रयोजन है- लोक में सांसारिक भोग-वस्तुओं की निःसारता को दिखाकर मनुष्य को शान्ति के मार्ग पर प्रवृत्त करना। प्रकृति-वर्णन
'नेमिदूत' में कवि द्वारा किया गया प्रकृति-वर्णन वास्तविक चित्र प्रस्तुत करता है। जैसे ये प्रकृति के सौम्य रूप को देखते हैं उसी तरह उसका उग्र रूप भी उनकी लेखनी से चमत्कृत होता है । वर्षाकाल उपस्थित होने पर, आकाश में मँडराते हुए मेघसमूह तथा उड़ती हुई बकुल पंक्तियां जहाँ प्रकृति के सौम्य रूप का द्योतक हैं -- अस्मादद्रेः प्रसरति मरुत्प्रेरितः प्रौढ़नादै
__ भिन्दानोऽयं विरहिजनताकर्णमूलं पयोदः । यं दृष्ट्वैता: पथिकवदनाम्भोज चन्द्रातपाऽऽभाः,
सेविष्यन्ते नयनसुभगं खे भवन्तं बलाकाः ॥ ९ ॥ वहीं जनस्थान का भयावह रूप भी द्रष्टव्य है - आकाश में काले-काले बादल मंडरा रहे हैं; फलस्वरूप धनाच्छन्न होने से घनीभूत अन्धकार व्याप्त है कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। ऐसे में दिन, और रात के ज्ञान में आकाश में उड़ते हुए हंस-समूह ही सहायक होते हैं - शैलप्रस्थे जलदतमसाऽऽछादिताशाम्बरेण,
स्निग्धश्यामाजनचयरुचाऽऽसादिताभिन्नभावाः । यामिन्योऽमूर्विहितवसतेर्वासरा चाजनेऽस्मिन्,
सम्पत्स्यन्ते नभसि भवतो राजहंसा: सहायाः ॥ ११ ॥
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