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________________ ४२ । नेमिदूतम् एनां शुष्यद्वदनकमलां दूरविध्वस्तपत्रां, जातां मन्ये तुहिनमथितां पद्मिनी वान्यरूपाम् ॥ ९० ॥ उद्यत्तापात्कुमुदमिव ते कैरविण्या वियोगा दिन्दौर्दैन्यं त्वदनुसरण क्लिष्टकान्तेबिभर्ति ॥ ९१॥ फलस्वरूप राजीमती की सखियां, जो शयन-कक्ष की खिड़की पर बैठी हुई हैं, कर्ण प्रिय गीतादि के द्वारा या विनोदपूर्ण वार्ता के द्वारा अथवा पुराण सम्बन्धी कथा के द्वारा भी राजीमती को प्रसन्न करने में सफल नहीं होती हैंगीताद्यैर्वा श्रुतिसुखकरैः प्रस्तुतैर्वा विनोदैः; पौराणीभिः कृशतनुमिमां त्वद्वियोगात्कथाभिः । तुष्टि नेतुं रजनिषु पुन लिवर्गः क्षमोऽभूत्, तामुन्निद्रामवनिशयनासन्नवातायनस्थः ॥९६ ॥ वियोग की अवस्था कैसी होती है इसका अनुमान इसी से हो जाता है कि राजीमती के लिए एक रात्रि एक वर्ष के समान हो गयी - रात्रि संवत्सरशतसमां त्वत्कृते तप्त गात्री ॥ ९७ ।। जिसके कारण वियोगपीडिता राजीमती सम्पूर्ण जगत् को ही नेमिमय देखने लगी पश्यन्ती त्वन्मयमिव जगन्मोहभावात्समग्रम् ॥ ९८ ॥ और मदनबाण से विदीर्णहृदया राजीमती नवपल्लव सदृश शय्या पर उसी प्रकार न सो पाती थी और न जग ही पाती थी, जिस प्रकार घनाच्छन्न वर्षा काल के दिन में स्थलकमलिनी न तो विकसित और न ही मुकुलित हो पाती है - अन्तभिन्ना मनसिजशरैर्मीलिताक्षी मुहूर्त, लब्ध्वा संज्ञामियमथ दशाऽवीक्षमाणातिदीना। शय्योत्संगे नवकिसलयस्रस्तरे शर्म लेभे, साभ्रेऽह्नोव स्थलकमलिनी न प्रबुद्धा न सुप्ता ॥ ९९॥ विरह की इस अग्नि के ताप से राजीमती का कोमल बाहुद्वय मलिन होकर, सूर्य की किरण से मलिन शोभा वाली कमल नाल की तरह हो गया है तथा रस से आर्द्र केले के समान गोरी जाँघ विरह-निःश्वास से दग्ध होकर विरहाग्नि के साथ चञ्चलता को प्राप्त हो गयी है - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002117
Book TitleNemidutam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVikram Kavi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
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