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भूमिका
श्रीमान् योगादचलशिखरे केवलज्ञानमस्मिन्,
नेमिर्देवोरगनरगणः स्तूयमानोऽधिगम्य । तामानन्दं शिवपुरि परित्याज्य संसारभाजां;
भोगानिष्टानभिमतसुखं भोजयामास शश्वत् ॥ १२५ ।। इसके अतिरिक्त नेमिदूत में शृङ्गार के विप्रलम्भ भेद का बड़ा ही सुन्दर चित्रण किया गया है। राजीमती नेमि के विरह में कामाग्नि में जलती हुई अपनी सखियों के साथ रामगिरि पर जाती है। सखी राजीमती की विरहावस्था का वर्णन करती हुई कहती है-हे नाथ ! क्षत्रिय का धर्म है शरण में आये हुए की रक्षा करना । इसलिए कामबाण से व्यथित इस राजीमती की आप रक्षा करेंसा तं दूना मनसिजशरर्यादवेशं बभाषे,
रक्षत्यात शरणगमसौ क्षत्रियस्येति धर्मः ॥ ६ ॥ क्योंकि वर्षाकाल के उपस्थित हो जाने पर वियोग में तत्क्षण टूट जाने वाली विरहिणी के हृदय को, प्रिय के अतिरिक्त दूसरा कौन, रोक सकता हैकाले कोऽस्मिन् वद यदुपते ! जीवितेशादृतेऽन्यः,
सद्यः पाति प्रणयि हृदयं विप्रयोगे रुणद्धि ॥ १०॥ सखी के मुख से राजीमती की विरह-दशा का वर्णन सुनकर नेमि के हृदय में जो भी भाव उत्पन्न हुआ हो, किन्तु राजीमती की विरह दशा को सुनकर वहाँ उपस्थित मेघ का हृदय द्रवित हो गया और वह रो पड़ाइत्युक्तेस्या वचनविमुखं मुक्तिकान्तानुरक्त,
दृष्ट्वा नेमि किल जलधरः सन्निधौ भूधरस्थः । तत्कारुण्यादिव नवजलाश्राणुविद्धां स्म धत्ते,
खद्योतालीविलसितनिभां विधुदुन्मेषदृष्टिम् ।। ८८ ॥ विरह की अग्नि में तपती हुई राजीमती की शोभा शरद् ऋतु में हिमपात के कारण पत्रादि से रहित कमल की शोभा के समान तो हो ही गई है, साथ ही उसके शरीर की कान्ति श्वेतकुमुद पुष्प के वृक्ष में खिले हुए कुमुद पुष्प की उस शोभा के समान है, जो शोभा सूर्य की तप्त किरणों में कुमुदपुष्प की होती है । इतना ही नहीं, नेमि के वियोग में उसका अनुसरण करती हुई राजीमती की शरीर-कान्ति कला से रहित चन्द्रमा की दीनता को ही कहती है
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