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भूमिका
होकर केवलज्ञान ( मोक्ष ) की प्राप्ति के लिए राम गिरि पर चले जाते हैं । इस वृत्तान्त को सुनकर उग्रसेन की दुहिता राजीमती भी अपनी सखियों के साथ रामगिरि पर जाती है; जहाँ राजीमती की सखी ही ( न कि राजीमती) राजीमती के विरहावस्था का वर्णन करती है और इसकी पुष्टि स्वयं राजीमती के सखी के इस वचन से भी हो जाता है - धर्मज्ञस्त्वं यदि सहचरीमेकचित्तां च रक्तां,
किं मामेवं विरहशिखिनोपेक्ष् यसे दह्यमानाम् । तत्स्वीकारात्कुरु मयि कृपां यादवाधीश ! बाला,
त्वामुत्कण्ठाविरचितपदं मन्मुखेनेदमाह ॥ ११० ॥ इसी प्रकार राजीमती की सखी नेमिनाथ से द्वारिका लौट चलने के लिए राजीमती की विरहावस्था का वर्णन करते हुए अपने वाक्य की समाप्ति करते हुए कहती है कि 'जिस प्रकार वर्षाकाल में नवीन मेघ का बिजली रूपी प्रियतमा से कभी वियोग नहीं होता उसी प्रकार तुम्हारा ( नेमि का ) भी अपनी प्रियतमा राजीमती से कभी वियोग न हो।'
राजीमत्या सह नवघनस्येव वर्षासु भूयो,
मा भूदेवं क्षणमपि च ते विद्युता विप्रयोगः ॥ १२३ ॥ स्पष्ट है कि नेमिदूत के प्रारम्भ में “सा तत्रोच्च शिखरिणि समासीनमेनं मुनीशं" से लेकर 'विद्युता विप्रयोगः' इस कथन से दूतकाव्य के लिए जो अपेक्षित तत्त्व हैं, उसकी अक्षुण्ण स्थिति बनी हुई है।
पुनः सखी के द्वारा राजीमती के मनोगत भावों को जानकर नेमि ने राजीमती को अपने सहचरी के रूप में ग्रहण कर लिया। किन्तु ध्यातव्य है कि राजीमती नेमि के द्वारा एक शृङ्गारी नायिका के रूप में नहीं, अपितु सुन्दर वाक्यों से धर्म का उपदेश देकर सुख-दुःख-मोह स्वरूपा इस संसार की असारता को दिखाकर मोक्षसुख की प्राप्ति के लिए ही उसे स्वीकार किया गया, क्योंकि महापुरुषों से की गई सबों की प्रार्थना सफल होती हैतत्सख्योक्ते वचसि सदयस्तां सतीमेकचित्तां,
सम्बोध्येशः सभवविरतो रम्यधर्मोपदेशः । चक्रे योगान्निजसहचरी मोक्षसौख्याप्तिहेतोः,
केषां न स्यादभिमतफला प्रार्थना युत्तमेषु ॥ १२४ ॥
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