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नेमिदूतम्
अर्थात्,
साङ्गण पुत्र
विक्रम ने श्रीमन्नेमि के चरित को लेकर निर्मल ( नेमिदूतम् ) काव्य की रचना की, जिसका अन्त्य पाद ( चतुर्थ चरण ) कालिदास के 'मेघदूत' से लिया गया है ।
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'नेमिदूत' की हस्तलिपि प्रति सं० १४७२ में उपलब्ध होने से कुछ विद्वानों ने उक्त आधार पर विक्रम कवि का समय १५ वीं शताब्दी सिद्ध करने का प्रयास किया, जो निराधार ही नहीं नितान्त भ्रामक भी है । विद्वद्वर नाथूराम जी, 'विद्वत्नमाला' तथा 'जैन साहित्य और इतिहास' ग्रन्थ में, सं० १३५२ के लेख के आधार पर, विक्रम कवि को दिगम्बर सम्प्रदायी मानते हैं, किन्तु यह कथन अक्षरशः सत्य प्रतीत नहीं होता ।
अन्ततः अनिश्चितता के गर्त में पड़े विक्रम कवि के समय, सम्प्रदाय, वंशादि के विषय में कुछ भी कहना इदमित्थं जैसा है । फिर भी, इतिहासकारों के अनुसार विक्रम कवि का समय १३ वीं शताब्दी का अन्त और १४ वीं शताब्दी का प्रारम्भ माना जा सकता है तथा ये खरतरगच्छीय परम्परा के थे ।
यहाँ इतना ध्यातव्य है कि 'बीकानेर स्टेट लाइब्र ेरी' तथा 'हेमचन्द्रसूरि पुस्तकालय' की प्रति में 'विक्रम' के स्थान पर 'झांझण' पाठ है । किन्तु नेमिदूत की जब अनेक प्रतियाँ उपलब्ध हुईं, तो नेमिदूत की लोकप्रियता के साथसाथ विक्रम के स्थान पर झांझण पाठ का भी स्वतः निराकरण हो गया ।
नेमिदूतम्
नेमिदूत के विषय में यह विवाद है कि इसे दूत-काव्य माना जाय अथवा काव्य । इस विषय में मेरा यही विचार है कि नेमिदूत को दूतकाव्य की कोटि में ही रखना उचित होगा । नेमिदूतः - 'नेमि एव दूतः ' यहाँ यदि रूपक समास की विवक्षा की जाय तो यह पुल्लिङ्ग एवम् अभेद लक्षणया ग्रन्थवाचक बन जायेगा । यदि नेमि एव दूतो यस्मिस्तत् नेमिदूतम् अर्थात्, नेमि ही हो दूत जिसमें इस प्रकार अन्यपद प्रधान बहुब्रीहि समास की विवक्षा की जाय तो यह पद नपुंसक हो जाता है ।
अब, जहाँ तक इसको दूत-काव्य मानने की बात है, तो वह इस प्रकार
विवाह में बारातियों के लिए भोज्य-सामग्री में जीव ( भक्ष्य पशु ) भी थे । उनके आर्तनाद को सुनकर नेमिनाथ इस सांसारिक माया-मोह से विरक्त
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