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भूमिका
द्वारा मयूर को दूत बनाकर अपना सन्देश अपनी प्रिया तक पहुंचाना है । 'मद्रास' से प्रकाशित द्वितीय 'मयूरसन्देश' के रचयिता 'श्रीनिवासाचार्य' हैं तथा 'अड्यार पुस्तकालय' के 'हस्तलिखित संस्कृत ग्रन्थों की सूची-पत्र' ( भाग २, संख्या ८ ) के अनुसार तृतीय 'मयूरसन्देश' के प्रणेता 'श्री रङ्गाचार्य' हैं और चतुर्थ 'मयूरसन्देश' का नामोल्लेख मात्र 'ओरियण्टल लाइब्रेरी', मद्रास के 'हस्तलिखित संस्कृत ग्रन्थों की सूची-पत्र' (भाग ४; ग्रन्थाङ्क ४२९४ ) में हुआ है । लेकिन कवि का नाम अज्ञात है । मानससन्देश
इस नाम के दो सन्देश-काव्यों ( अप्रकाशित ) में से प्रथम 'मानससन्देश' ( ओरियण्टल हस्तलिखित पुस्तकालय, मद्रास के ग्रन्थाङ्क २९६४ के अनुसार ) 'श्री वीर राघवाचार्य' ( १८५५ से १९२०) की कृति है तथा द्वितीय 'मानससन्देश' (संस्कृत के सन्देश काव्य, राम कुमार आचार्य, परिशिष्ट २) के अनुसार 'श्रीलक्ष्मण सूरि' ( १८५९-१९१९ ई.) की कृति है। आप 'पचप्पा कॉलेज'; मद्रास में संस्कृत के प्राध्यापक थे। मारुतसन्देश
'राम कुमार आचार्य' द्वारा इस सन्देशकाव्य का नामोल्लेख किया गया है, जब कि वे कवि आदि के बारे में मौन हैं । मित्रदूतम्
पुस्तक भवन, राँची ( बिहार ) से प्रकाशित ९७ पद्यों वाले 'मित्रदूत' के प्रणेता 'प्रो० दिनेश चन्द्र पाण्डेय' (अध्यक्ष, स्नातकोत्तर संस्कृत विभाग; रांची विश्वविद्यालय, बिहार ) हैं। इस काव्य का प्रतिपाद्य विषय; एक छात्र, जो राँची विश्वविद्यालय का ही छात्र है तथा उसकी ऐसी प्रेयसी जो सहपाठिनी है, अपनी प्रेयसी पर इतना अधिक आसक्त हो जाता है कि उसे विश्वविद्यालय से निष्कासित कर दिया जाता है। पश्चात् वह ( छात्रावास के समीप ) टयगोर पर्वत के निकट आम्र-कुञ्ज में अवस्थित मन्दिर में अपने मन को बहलाने के लिए रहने लगा। एक दिन वहाँ अपने एक मित्र को देखकर उससे कश्मीर में रह रही अपनी सहपाठिनी प्रिया के पास अपना सन्देश पहुँचाने के लिए प्रार्थना करता है तथा वहाँ तक जाने में साधन के रूप में उपयोग की जाने वाली वस्तुओं को भी उससे, अर्थात् अपने मित्र से बताता है । विशेष के लिए उक्त दूतकाव्य को ही देखना चाहिए ।
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