SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नेमिदूतम् मणिदीपों से दूर किया गया ( अन्धकार समूह ) भयभीत की तरह, धूओं निकलने की नकल करने में निपुण ( अतः ) टुकड़े-टुकड़े होकर झरोखों से निकल जाते हैं। - रात्री यस्यामुपसखिभृशं गात्रसंकोचभाजां, रागेणान्धः शयनभवनेषुल्लसद्दीपवत्सु । प्रेम्णा कान्तरभिकुचयुगं हृद्यगन्धिर्वधूनाम्, ह्रीमूढानां भवति विफलः प्रेरितश्चूर्णमुष्टिः ॥७॥ अन्वयः- यस्याम्, उल्लसद्दीपवत्सु, शयनभवनेषु, रात्री, उपसखिभृशम्, गात्रसंकोचभाजाम्, ह्रीमूढानाम्, वधूनाम्, अभिकुचयुगम् रागेणान्धः; कान्तः, प्रेम्णा, प्रेरितः, हृद्यगन्धिः, चूर्णमुष्टिः, विफलः, भवति । रात्री यस्यामिति । यस्याम् उल्लसद्दीपवत्सु शयनभवनेषु हे नाथ ! द्वारिकायां उल्लसन्तः प्रभाभिः देदीप्यमाना ये दीपाः ते विद्यन्ते येषु तेषु, वासगृहेषु सदनेसु वा। रात्रौ निशीथे निशायां वा। उपसखि सख्याः समीपम् इति 'उपसखि' नकट्यमिति भावः । भृशं गात्रसंकोचभाजाम् अधिकं गात्रसंकोचं भजन्तीति गात्रसंकोचभाजाम् । ह्रीमूढानां वधूनां लज्जाविधुराणां कामिनीनाम् । अभिकुचयुगं स्तनद्वयसम्मुखं रागेणान्धः कान्तः प्रेम्णा प्रियतमैः स्नेहेन । प्रेरितः हृद्यगन्धिश्चूर्णमुष्टिः प्रक्षेपः सुवासितमुष्टिगृहीतकुंकुमादिधूलि: विफलो भवति निष्फलो वर्तते ॥ ७५ ॥ शब्दार्थ: - यस्याम्-जिस द्वारिका में, उल्लसद्दीपवत्सु-चमकते हुए ( रत्न ) दीपों वाले, शयनभवनेषु-शयनगृहों में, शयन-कक्ष में, रात्रीरात्रि में, उपसखिभृशम्-सखी के समीप अत्यधिक, गात्रसंकोचभाजमगात्रसंकोच वाली, ह्रीमूढानाम्-लज्जा के कारण किंकर्तव्यविमूढ़, वधूनाम्अङ्गनाओं के, अभिकुचयुगम्-स्तनद्वय के सम्मुख, रागेणान्धः-राग से अन्ध, कान्तः-प्रियतम के द्वारा, प्रेम्णा-स्नेह से, प्रेरित:-फेंका गया, हृद्यगन्धिः चूर्णमुष्टिः-सुवासित कुंकुमादि की मुट्ठी, विफल:-निष्फल, भवतिहो जाती है। मर्थः-जिस द्वारिका के चमकते हुए रत्नदीपों वाले शयनगृहों में रात्रि में ( भी ) सखी के समीप अत्यधिक गात्रसंकोच वाली लज्जा के कारण किंकर्तव्यविमूढ़ सुन्दरियों के स्तनद्वय के सम्मुख राग से युक्त प्रियतम के द्वारा स्नेह से फेंका गया सुवासित कुंकुमादि की मुट्ठी निष्फल हो जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002117
Book TitleNemidutam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVikram Kavi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy