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नेमिदूतम्
हुए, त्र्यम्बकस्य-शङ्कर के, अट्टहासः इव-अट्टहास के समान, शोभतेशोभित होता है।
अर्थः - तुम वेणुपर्वत को तथा उन-उन ( पूर्वपरिचित ) ग्रामों का भी अतिक्रमण करके ( आगे बढ़ने पर ) दक्षिण दिशा में पहले अपनी द्वारिका नगरी के स्फटिकमणिनिर्मित भवन-समूह को देखोगे, जो आकाश में निर्मल ( स्वच्छ ) किरणसमूह से प्राकार को लांघकर प्रत्येक दिशा में एकत्र हुए शंकर के अट्टहास के समान शोभित है।
टिप्पणा - हास्य का रंग धवल होता है। द्वारिका नगरी भी स्फटिकमणिमय होने से धवल है । अतः ऐसा प्रतीत होता है कि वह द्वारिका नगरी अन्य कुछ न होकर प्रत्येक दिशा में शिव जी के अट्टहास का पुञ्ज ही है । प्रत्यासत्ति विशदशिखरोत्संगमागे पयोदे,
नीलस्निग्धे क्षणमुपगते पुण्डरीकप्रभस्य । शोभा काचिद्विलसति मनोहारिणी यस्य संप्र
त्यंसन्यस्ते सति हलभृतो मेचके वाससोव ॥ ६३ । अन्वयः -- ( हे नाथ ! ) पुण्डरीकप्रभस्य, विशदशिखरोत्संगभागे, नीलस्निग्धे-पयोदे, क्षणम्, प्रत्यासत्तिम्, उपगते, यस्य, मेचके, वाससि, अंसन्यस्ते, सति, हलभृतः, इव, सम्प्रति, काचिद्, मनोहारिणी, शोभा, विलसति ।
प्रत्यासत्तिमिति । पुण्डरीकप्रभस्य विशदशिखरोत्संगभागे हे नाथ ! श्वेतकमलवत् धवलशृंगकोडैकदेशे। नीलस्निग्धे पयोदे कृष्णरुक्षे-मेघे । क्षणं प्रत्यासत्तिमुपगते मुहूर्तं नकट्यं प्राप्ते सति । यस्य मेचके वास सि स्फटिकमणिमयभवनस्य श्यामे वस्त्रे। अंसन्यस्ते सति हलभृत इव अपरित्यक्ते, स्कन्धस्थापित इत्यर्थः, बलरामस्येव । सम्प्रति काचिद् मनोहारिणी अधुना अनिर्वाच्या मनोहरा, शोभा विलसति प्रतिभाति । यथा हलभृतस्तनोरंसन्यस्ते मेचके-कृष्णवर्णे वाससि शोभा काचिद्विलसति, तथैतस्यापीति । बलभद्रोऽपि शुभ्रवर्ण इति प्रसिद्धिः ॥ ६३ ॥
शब्दार्थः - पुण्डरीकप्रभस्य- श्वेतकमलवत्, विशदशिखरोत्संगभागे( स्फटिक मणिमय भवन समूह के ) धवल चोटी की गोद में, नीलस्निग्धेपयोदे-चिकने नीले मेघ के, क्षणं प्रत्यासत्तिमुपगते-पल भर समीप भा
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