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नेमिदूतम्
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धार वृष्टि के द्वारा निश्चित रूप से कमलों को ( उसी प्रकार गिरायेगा ) जिस प्रकार तुमने पहिले शत्रुओं के मस्तकों को बाण की वर्षा द्वारा बेध डाला था। नानारत्नोपचितशिखरश्रेणिरम्यः पुरस्ते,
यास्यत्यक्षणोविषयमचलो मादनो गन्धपूर्वः। यं सोत्कण्ठो नवमिवपुनर्वीक्षितुं कान्तहर्षादन्तः शुद्धस्वत्वमपि भविता वर्णमात्रेण कृष्णः॥ ५३॥
अन्वयः - पुरः, नानारत्नोपचितशिखरश्रेणिरम्यः, गन्धपूर्वः; मादनः, अचलः, ते, अक्ष्णोविषयम्, यास्यति, यम्, पुनः, नवमिव, कान्तहर्षाद्, सोत्कण्ठः, विक्षितुम्, अन्तः शुद्धः, अपि, त्वम्, वर्णमात्रेण, कृष्णः, भविता। ___ नानारत्नोपचितेति । पुरः नानारत्नोपचितशिखरश्रेणिर म्यः हे नाथ ! सम्मुखे विविधमणिपरिपुष्टतुङ्गपंक्तिप्रधानः काम्यः वा। गन्धपूर्वः मादनः अचल: गन्धशब्दपूर्वकं मादनो नाम पर्वतः । ते अक्षणोविषयं यास्यति तव नेत्रयोविषयं भविष्यति । यं पुनःनवमिव कान्तहर्षाद् गन्धमादनं पर्वतं भूयः नूतनं यथा चारुप्रमोदात् । सोत्कण्ठः विक्षितुम् अन्तः शुद्धः सौत्सुक्यो द्रष्टुं निर्मलान्तः-करणः सन्-अपि त्वं वर्णमात्रेण कृष्णः भविता भवान् शारीरिक रूपेणैव श्यामः, न तु हृदयेनापि कृष्ण इति भावः, भविष्यसि ।। ५३ ॥
शब्दार्थ - पुरः-सम्मुख, नानारत्नोपचितशिखरश्रेणिरम्यः-अनेक प्रकार के रत्नों से परिपुष्ट शिखरपंक्ति से सुन्दर, गन्धपूर्व:-जिसके पूर्व में 'गन्ध' शब्द है ऐसा, मादनः-मादन नामक, अचल:-पर्वत, ते-तुम्हारे; अक्ष्णोविषयम्-नेत्र का विषय, यास्यति-होगा, यम्-जिस (पर्वत ) को, पुनः-फिर, नवमिव-नये की तरह, कान्तहर्षाद्-रुचिकर होने के कारण, सोत्कण्ठः-उत्सुकतावश, विक्षितुम् – देखने के लिए, अन्तः शुद्धः-भीतर से शुद्ध होकर, अपि-भी, त्वम्-तुम, वर्णमात्रेण-रंगमात्र से, न कि हृदय से भी, कृष्णः-श्यामवर्ण के, भविता-हो जाओगे।
अर्थः - आगे, विविधमणियों से परिपुष्ट शिखर पंक्ति से सुन्दर जिसके पूर्व में गन्ध' शब्द है ऐसा मादन नामक पर्वत तुम्हारे नेत्र का विषय होगा। जिस ( गन्ध-मादन) को पुनः नये की तरह रुचिकर होने के कारण उत्सुकतावश देखने के लिए भीतर से शुद्ध होकर भी तुम रंगमात्र से श्याम रंग के हो . जाओगे ( न कि हृदय से भी)।
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