________________
नेमिदूतम्
[ ५३
नाम्ना रत्नाकरमथेति । अथ त्वं रत्नाकरं नाम्ना अनन्तरं भवान् नेमि इत्यर्थः, रत्नाकरनाम्ना समुद्रम् । वीक्षमाणः पुरः व्रजेः अवलोकमानः (वि Vईक्ष, शान+विभक्तिः ) गच्छेः । हि यस्मात्पुरा भुवनभयकृत् यतो हि रत्नाकरात् पूर्व जगत्रयभीतिविधायकम् । तत्कालकूटं यज्ञे तत् विषं जातम् । यत्र जलानां हुतवहमुखे यस्मिन् अपां मध्ये अग्निवदने ( हुतस्य वहः-हुतवहः; ष० तत्०, हुतवहस्य मुखे-हुतवहमुखे, ष० तत्० )। सम्भृतमत्यादित्यं सञ्चितं दिनकरातिशायि ( आदित्यमतिक्रान्तमिति-अत्यादित्यम्, मयूरव्यसका० )। च जगद्दाहदक्षं तदसाध्यं तेजः निवसति तथा जगतामपि दाहे प्रवीणं भयावहं वा प्रताप: शंकर-प्रतिमूर्ति एवाऽस्ति, वसति ॥ ४७ ।।
शमार्थः- अथ-इसके बाद, त्वम्-तुम ( नेमि ), रत्नाकरं नाम्नारत्नाकर नामक समुद्र को, वीक्षमाणः- देखते हुए, पुरः-आगे, व्रजे:-- जाना, हि-क्योंकि, यस्मात्-जिस ( रत्नाकर ) से, पुरा-पहले, भुवनभयकृत्-लोक को भयभीत करने वाला, तत् कालकूटम्-वह विष, यज्ञे-उत्पन्न हुआ था, यत्र-जहाँ ( रत्नाकर के ) जलानाम्-जल के ( मध्य में ), हुतवहमुखे-अग्नि के मुख में, सम्भृतम्-संचित, भत्यादित्यम्-सूर्य से भी बढ़कर, जगद्दाहदक्षम्-जगत को भी जलाने में समर्थ, तत्-वह असाध्यम् - भयंकर, तेजः-वह तेज, निवसति-निवास करता है।
अर्थः- इसके बाद तुम रत्नाकर नामक समुद्र को देखते हुए आगे जाना। क्योंकि जिस (रत्नाकर ) से पुराकाल में लोक को भयभीत करने वाला वह कालकूट अर्थात् विष उत्पन्न हुआ था तथा जहाँ ( रत्नाकर के ) जल के मध्य में, अग्नि के मुख में (शंकर द्वारा ) एकत्रित किया गया । सूर्य से भी बढ़कर ( तथा ) जगत् को जलाने में समर्थ, वह भयंकर तेज निवास करता है। त्वामायान्तं तटवनचरा मेघनीलं मयूरा,
दृष्ट्वा दूरान्मधुरविरुतस्तत्र ये संस्तुवन्ति । त्वं तान्नेमे ! ध्वनिभिरुदधेः सान्द्रितैः सन्निकृष्टः,
पश्चादद्रि ग्रहणगुरुभिजितैर्नर्तयेथाः ॥४८॥ अन्वयः -- तत्र, मेघनीलम्, त्वामायान्तम्, दूरात्, दृष्ट्वा, तटवनचराः,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org