________________
८४ : जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन कर उन्होंने श्रावण शुक्ला पूर्णमासी के दिन धनिष्ठा नक्षत्र में मोक्ष प्राप्त किया। उसी समय देवों ने उनका निर्वाण कल्याणक किया।१७१ __ श्रेयांसनाथ का लांछन गेंडा और यक्ष-यक्षी ईश्वर एवं मानवी ( या गौरी) हैं। श्रेयांसनाथ की ११वीं-१३वीं शती ई० की केवल कुछही स्वतंत्र मूर्तियाँ मिली हैं जिनके उदाहरण बारभुजी एवं त्रिशूल गुफाओं, इन्दौर संग्रहालय एवं कुम्भारिया के पार्श्वनाथ मन्दिर में है।१७२ एलोरा में श्रेयांस की एक भी मूर्ति नहीं मिली है। १२. वासुपूज्य : ___ बारहवें तीर्थकर वासुपूज्य का जन्म इक्ष्वाकुवंशीय काश्यपगोत्री राजा वसुपूज्य के यहाँ हुआ था। इनकी माता जयावती भी अन्य जिन माताओं की तरह छह माह पूर्व देवों द्वारा रत्नवृष्टि से सम्मानित हुई थीं। तदनन्तर फाल्गुन कृष्णपक्ष के चतुर्दशी के दिन वारुण योग में वासुपूज्य का जन्म हुआ जिसका सौधर्म आदि देवों ने सुमेरु पर्वत पर ले जाकर कलश द्वारा क्षीर सागर से लाये हुए जल द्वारा जन्माभिषेक किया और वासुपूज्य नाम रखा।१७3 श्वेताम्बर परम्परा में इनके नामकरण के सम्बन्ध में उल्लेख है कि महाराज वसुपूज्य का पुत्र होने के कारण इनका नाम 'वासुपूज्य' रखा गया।
वासुपूज्य की आयु बहत्तर लाख वर्ष तथा शरीर सत्तर धनुष ऊँचा था व कान्ति कुंकुम के समान थी। कुमार काल के अट्ठारह लाख वर्ष बीतने पर उन्हें इस संसार से वैराग्य हो गया। उसी समय लौकान्तिक देवों द्वारा उनकी स्तुति व देवों द्वारा दीक्षाकल्याणक अभिषेक किया गया। वासुपूज्य मनोहरोद्यान नामक वन में जाकर छह सौ छिहत्तर राजाओं के साथ दोक्षित हो गये । हेमचन्द्र तथा जिनसेन ने वासुपूज्य को अविवाहित बताया है। छद्मस्थ अवस्था में एक वर्ष व्यतीत करने के बाद माघ शुक्ल द्वितीया के दिन कदम्ब वृक्ष के नीचे इन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हई। उसी समय सौधर्म आदि इन्द्रों ने उनकी ज्ञानकल्याणक पूजा की। विहार व धर्म का उपदेश देते हुए जब उनकी आयु का एक माह शेष रह गया तब इन्होंने चौरानबे मुनियों के साथ भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी के दिन मोक्ष प्राप्त किया ।१७४
१०वीं शती ई० से ही वासुपूज्य की मूर्तियाँ बनीं जिनके केवल कुछ ही उदाहरण मिले हैं जो शहडोल, बारभुजी एवं त्रिशूल गुफाओं तथा विमलवसही और कुम्भारिया में देखे जा सकते हैं । वासुपूज्य का लांछन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org