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८२ : जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन कार्तिक शुक्ल द्वितीया के दिन मूल नक्षत्र में नागवक्ष के नीचे इन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। चतुर्णिकाय देवों के इन्द्रों द्वारा समवसरण की रचना की गयी। इस तरह बारह सभाओं से पूजित पुष्पदन्त आर्यदेशों में विहार करते हुए सम्मेदशिखर पर पहुँचे और भाद्रशुक्ल अष्टमी के दिन मूल नक्षत्र में निर्वाण पद प्राप्त किया । १६३
विदिशा ( म० ०प्र) से मिली चौथी शती ई० की पुष्पदन्त की ध्यानस्थ मूर्ति के बाद ११वीं शती ई० के पूर्व की कोई दूसरी स्वतंत्र मति नहीं मिली है। अन्य तीर्थंकरों की अपेक्षा पुष्पदन्त की स्वतंत्र मूर्तियों की संख्या नगण्य है जिसके दो उदाहरण उड़ीसा की बारभज्ञी एवं त्रिशूल गुफाओं में उत्कीर्ण हैं। पुष्पदन्त का लांछन मकर है और यक्ष-यक्षी अजित एवं सुतारा ( या महाकाली) हैं ।१६४ एलोरा में पुष्पदन्त की एक भी मूर्ति नहीं है। १०. शीतलनाथ : ____दसवें तीर्थंकर शीतलनाथ का जन्म भरतक्षेत्र के मलय नामक देश के इक्ष्वाकुवंशीय राजा दृढ़रथ के यहाँ हुआ था । इनकी माता सुनन्दा ने भी पूर्ववत् सोलह मांगलिक स्वप्नों तथा मुख में प्रवेश करता हुआ हाथी देखा। सुनन्दा ने माघकृष्ण द्वादशी के दिन जिन पुत्र को जन्म दिया जिसका देवों ने सुमेरु पर्वत पर ले जाकर जन्माभिषेक किया और 'शीतलनाथ' नाम रखा । १६५ श्वेताम्बर परम्परा में इनके नामकरण के सन्दर्भ में उल्लेख है कि बालक के गर्भकाल में महाराज दृढ़रथ के शरीर में भयंकर दाह-ज्वर की पीड़ा थी जो विभिन्न उपचारों से भी शान्त नहीं हई। एक दिन सुनन्दा देवी के कर स्पर्श मात्र से ही वह वेदना बिल्कुल शान्त हो गयी व तन-मन में शीतलता छा गयी। अतः सबने मिलकर बालक का नाम शीतलनाथ रखा । १६६ ___शीतलनाथ की आयु एक लाख पूर्व और शरीर नब्बे धनुष ऊँचा था। आयु का चतुर्थ भाग बीत जाने पर उन्हें राज्यपद प्राप्त हुआ। जब उनकी आयु का चतुर्थ भाग शेष रह गया तो एक दिन वन में विहार करते हुए उन्होंने पाले के समूह को क्षण भर में नष्ट होता देखा । उसी समय उन्हें समस्त नश्वर पदार्थों एवं संसार से विरक्ति हो गयी और उन्होंने सहेतुक वन में एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा ली । तदनन्तर छद्मस्थ अवस्था में तीन वर्ष व्यतीत करने के बाद एक दिन बेल के वृक्ष के नीचे पौष कृष्ण चतुर्दशी के दिन पूर्वाषाढ़ नक्षत्र में इन्हें
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