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________________ तीर्थकर ( या जिन) : ८१ विहार बन्द कर एक हजार मुनियों के साथ एक माह तक प्रतिमायोग धारण कर फाल्गुन कृष्ण सप्तमी के दिन ज्येष्ठा नक्षत्र में इन्होंने निर्वाण प्राप्त किया । १५९ यद्यपि एलोरा में चन्द्रप्रभ की एक भी मूर्ति नहीं मिली है किन्तु अन्य क्षेत्रों में गुप्तकाल से ही चन्द्रप्रभ की स्वतंत्र मूर्तियों के उदाहरण मिलते हैं ( चित्र ३ ) । इन उदाहरणों में चन्द्रप्रभ के शशि लांछन का अंकन हुआ है किन्तु पारम्परिक यक्ष-यक्षी विजय ( या श्याम ) एवं भृकुटि ( या ज्वाला ) का रूपायन नहीं मिलता । खजुराहो, देवगढ़ तथा उड़ीसा की बारभुजी एवं त्रिशूल गुफाओं की दिगम्बर परम्परा की मूर्तियों के अतिरिक्त उड़ीसा में कोणार्क के समीप ककतपुर एवं उ० प्र० में कौशाम्बी (चित्र ४ ) से भी चन्द्रप्रभ की मूर्तियाँ मिली हैं ।' १६० ९. सुविधिनाथ ( या पुष्पदन्त ) : नौवें तीर्थंकर सुविधिनाथ ( या पुष्पदन्त ) का जन्म भरतक्षेत्र के काकन्दी नामक नगरी के काश्यपगोत्री राजा सुग्रीव के यहाँ हुआ था । इनकी माता का नाम जयरामा था । इन्होंने भी अन्य जिन माताओं की ही तरह १६ शुभ स्वप्न देखे तथा देवों द्वारा रत्नवृष्टि से हर्षित हुई । मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा के दिन सुविधि का जन्म हुआ । उसी समय देवों के साथ आकर इन्द्रों ने क्षीरसागर के जल से उनका अभिषेक किया और पुष्पदन्त नाम रखा । १६१ श्वेताम्बर परम्परा में इनके नामकरण के सन्दर्भ में उल्लेख है कि महाराज सुग्रीव ने सोचा कि बालक के गर्भकाल में माता सब विधियों से कुशल रहीं इसलिये इनका नाम सुविधिनाथ और गर्भकाल में माता को पुष्प का दोहद उत्पन्न हुआ इसलिए पुष्पदन्त नाम रखा जाय । १६२ इनकी आयु दो लाख पूर्व और शरीर सौ धनुष ऊँचा था । राज्याभिषेक के बाद राज्य करते हुए जब उनकी आयु के पचास हजार पूर्वं व अट्ठाईस पूर्वाग बीत गये तो एक दिन दिशाओं का अवलोकन करते समय उल्कापात देखकर उन्हें इस नश्वर संसार के प्रति विरक्ति उत्पन्न हो गयी और आत्मज्ञान उत्पन्न हुआ । उसी समय लौकान्तिक देवों ने आकर उनकी पूजा की। इन्होंने सुमति नामक पुत्र को राज्य सौंपकर पुष्पकवन में एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा धारण की । उसी समय इन्हें मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया । तदनन्तर छद्मस्थ अवस्था में चार वर्ष तक तपस्या में अपना समय व्यतीत करने के बाद ६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002115
Book TitleJain Mahapurana Kalaparak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumud Giri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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