________________
८० : जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन
शान्ता ( या काली ) हैं । १०वीं शती ई० से सुपार्श्व की मूर्तियाँ बनीं जिनके उदाहरण ल० सभी श्वेताम्बर व दिगम्बर कला केन्द्रों पर देखे जा सकते हैं। सिर पर पाँच सर्पफणों के नियमित अंकन के कारण ही सुपार्श्व के साथ स्वस्तिक लांछन केवल देवगढ़ और खजुराहो के कुछ उदाहरणों में दिखाया गया है। दिगम्बर कला केन्द्रों पर सुपार्श्व की सर्वाधिक स्वतंत्र मूर्तियाँ बनीं जिनके सर्वाधिक उदाहरण देवगढ़ और खजुराहो में हैं। | १५६ एलोरा में सुपार्श्व की केवल एक मूर्ति मिली है। जो गुफा सं० ३२ में हैं । पाँच सर्पफणों के छत्र से आच्छादित सुपार्श्व कायोत्सर्ग में निर्वस्त्र खड़े हैं । सुपार्श्व के साथ प्रातिहार्य और यक्ष-यक्षो का अंकन नहीं हुआ ।
(८) चन्द्रप्रभस्वामी :
आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ का जन्म चन्द्रपुर नामक नगर के राजामहासेन के यहाँ हुआ था। इनकी माता का नाम लक्ष्मणा था । इन्होंने भी १६ शुभस्वप्नों का दर्शन किया था। पौषकृष्ण एकादशी के दिन चन्द्रप्रभ का जन्म हुआ और उस अवसर पर देवों ने इनका जनकल्या
क किया। उनके जन्म लेते ही पृथ्वी मण्डल का समूह अथवा नीलकमलों का समूह अत्यन्त विकसित हो गया था । इसीलिये इन्द्र ने उनका नाम 'चन्द्रप्रभ' रखा । १५७ श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार माता
गर्भकाल में चन्द्रपान की इच्छा पूर्ण की तथा बालक के शरीर की प्रभा भी चन्द्रमा के समान थी, इसी कारण उनका नाम चन्द्रप्रभ रखा गया ।
१५८
इनकी आयु दस लाख पूर्व तथा शरीर एक सौ पचास धनुष ऊँचा था। आयु के दो लाख पचास हजार पूर्व व्यतीत हो जाने पर उनका राज्याभिषेक हुआ और राज्य का उपभोग करते हुए एक दिन दर्पण में अपना मुख कमल देखते समय इन्हें संसार के प्रति विरक्ति उत्पन्न हो गयी । तब चन्द्रप्रभ ने अपना राज्य वरचन्द्र नामक पुत्र को देकर सर्वतुर्क नामक वन में एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण की। तदनन्तर जिनकल्प मुद्रा 'में तीन माह बिताकर उन्होंने नागवृक्ष के नीचे केवलज्ञान की प्राप्ति की । देवों ने उसी समय इनकी ज्ञानकल्याणक पूजा की । चन्द्रप्रभ के चौतीस अतिशयों व आठ प्रातिहार्यों का भी उल्लेख उत्तरपुराण में हुआ है । समस्त आर्य देशों में विहार और धर्म तीर्थं की प्रवृत्ति करते हुए चन्द्रप्रभ सम्मेद शिखर पर पहुँचे । वहाँ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org