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________________ तीर्थकर (या जिन) : ७९ पद्मप्रभ का लांछन पद्म और यक्ष-पक्षी कुसुम एवं अच्युता ( या मानसी या मनोवेगा) हैं । पद्मप्रभ की भी केवल कुछ ही मूर्तियाँ खजुराहो, छतरपुर, देवगढ़ एवं ग्वालियर से मिली हैं जिनमें पद्म लांछन दिखाया गया है किन्तु यक्ष-यक्षी खजुराहो के पार्श्वनाथ मन्दिर के अतिरिक्त अन्य किसी उदाहरण में निरूपित नहीं हुए हैं। उड़ीसा की बारभुजी एवं त्रिशुल गुफाओं में भी पद्मप्रभ की ध्यान मुद्रा में आसीन दो मूर्तियाँ देखी जा सकती हैं ।१५२ एलोरा में पद्मप्रभ की एक भी मूर्ति नहीं मिली है। (७) सुपार्श्वनाथ : सुपार्श्वनाथ का जन्म वाराणसी नगरी के इक्ष्वाकुवंशीय राजा सुप्रतिष्ठ के यहाँ हुआ था। इनकी माता पृथ्वीषेणा ने भी अन्य जिन माताओं की तरह १६ शुभस्वप्न व मुख में प्रवेश करता हाथी देखा था। ज्येष्ठ शक्ल द्वादशी के दिन पृथ्वीषेणा ने अहमिन्द्र को जन्म दिया जिसका इन्द्रों ने सुमेरु पर्वत पर ले जाकर जन्माभिषेक किया और उसका नाम सुपार्श्व रखा । १५३ श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार गर्भकाल में माता के पार्श्व के शोभन रहे होने के कारण, बालक का नाम सुपार्श्वनाथ रखा गया है । १५४ इनकी आयु २० लाख पूर्व और शरीर दो सौ धनुष ऊँचा था। कुमारकाल के पाँच लाख पूर्व बीत जाने पर इन्होंने साम्राज्य स्वीकार किया। इन्हें किसी दिन ऋतु परिवर्तन देख कर राज्यलक्ष्मी व समस्त नश्वर पदार्थों के प्रति विरक्ति उत्पन्न हो गयी। तभी लौकान्तिक देवों ने आकर इनकी स्तुति की और सुपाव ने एक तजार राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण की। इसी समय इन्हें मनः पर्यय ज्ञान उत्पन्न हो गया। नौ वर्षों तक छद्मस्थ अवस्था में मौन धारण करने के बाद शिरीष वृक्ष के नीचे ध्यानारूढ़ सुपावं को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई । उसी समय देवों ने इनकी पूजा की । आयु का एक माह शेष रहने तक इन्होंने धर्म का उपदेश देते हुए पृथ्वी पर विहार किया और सम्मेद शिखर पर एक हजार मुनियों के साथ प्रतिमायोग धारण कर फाल्गुन कृष्ण सप्तमी के दिन सूर्योदय के समय निर्वाण प्राप्त किया।१५५ ।। जैन प्रतिमाशास्त्रीय ग्रन्थों में सुपार्श्वनाथ का लांछन स्वस्तिक बताया गया है और उनके सिर पर एक, पाँच या नौ सर्पफणों के छत्र के प्रदर्शन का उल्लेख किया गया है। सुपार्श्व के यक्ष-यक्षी मातंग और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002115
Book TitleJain Mahapurana Kalaparak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumud Giri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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