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________________ कलापरक अध्ययन ली। उसी समय इन्द्रादि देवों ने उनका दीक्षा कल्याणक किया । १3० दीक्षा लेते ही इन्हें चतुर्थ मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया और दूसरे दिन वह साकेत नगरी पहुँचे जहाँ ब्रह्मा नामक राजा ने उन्हें यथाक्रम से दान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किया। बारह वर्ष छद्मस्थ अवस्था में बिताने के बाद पौषशुक्ल एकादशी१३१ के दिन रोहिणी नक्षत्र में उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति यी।१३२ महापुराण ( पुष्पदन्तकृत ) में कैवल्य की प्राप्ति होने पर इन्द्र द्वारा की गयी स्तुति में इन्हें भूतनाथ, नागों को धारण करने वाला, भभूत से अलंकृत शरीर व तीन नेत्रों वाला तथा हर ( शिव ), ब्रह्मा, विष्णु, महेश नामों से अभिहित किया गया है और इनके हाथ में चक्र लांछन का उल्लेख हआ है। १33 उपर्युक्त विशेषताएँ एवं नाम स्पष्टतः शिव, ब्रह्मा, विष्णु सहित ब्राह्मण त्रिदेवों से सम्बन्धित हैं जो आदिपुराण में ऋषभनाथ के लिए प्रयुक्त हुआ है। कैवल्य प्राप्ति के बाद अजित समस्त आर्य क्षेत्र में विहार कर. सम्मेदाचल पर पहुँचे और वहीं एक मास तक स्थिर निवास कर चैत्र शुक्ल पंचमी के दिन रोहिणी नक्षत्र में प्रातःकाल उन्होंने मुक्ति पद प्राप्त किया।१३४ अजितनाथ की मूर्तियों का निर्माण ल० छठी-सातवीं शती ई० में प्रारम्भ हुआ जिसके प्रारम्भिक उदाहरण राज्य संग्रहालय, लखनऊ में हैं । मूर्तियों में अजितनाथ के साथ गज लांछन का अंकन लोकप्रिय था। किन्तु पारम्परिक यक्ष-यक्षी महायक्ष एवं अजितबला ( या अजिता या विजया) का निरूपण नहीं किया गया। दिगम्बर परम्परा में अजितनाथ की यक्षी रोहिणी बतायी गयी हैं। यद्यपि देवगढ़, खजुराहो, राजगिर, उड़ीसा को नवमुनि एवं बारभुजी गुफाओं जैसे दिगम्बर स्थलों पर अजितनाथ की कुछ मूर्तियाँ बनी किन्तु उनमें पारम्परिक यक्ष-यक्षी का निरूपण नहीं हुआ । १३५ दक्षिण भारत में अजितनाथ की मूर्तियों के उदाहरण अत्यल्प हैं। एलोरा की जैन गुफाओं में केवल तीन मूर्तियाँ मिली हैं जो गुफा सं० ३२ में हैं। दो उदाहरणों में द्वितीर्थी तीर्थंकर मूर्तियों में सिंहासन के मध्य में धर्मचक्र के दोनों ओर दो गज आकृतियों का अंकन अजितनाथ के गज लांछन का अंकन है। तीनों ही उदाहरणों में अजितनाथ ध्यानमुद्रा में आसीन हैं और उनके साथ सामान्य प्रातिहार्य भी दिखाये गये हैं। किन्तु, यक्ष-यक्षी का उकेरन किसी भो उदाहरण में नहीं हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002115
Book TitleJain Mahapurana Kalaparak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumud Giri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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