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________________ तीर्थंकर ( या जिन ) : ७३ छह माह पूर्व से ही इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने इनके घर में रत्नों की - वृष्टि की । १२५ ऐसे ही रत्नों की वृष्टि का उल्लेख सभी तीर्थंकरों के - सम्बन्ध में आता है । जेठ महीने के अमावस के दिन रोहिणी नक्षत्र में रात्रि के समय माता विजयसेना ने सोलह शुभस्वप्न देखे | इन सोलह स्वप्नों को देखने के बाद उन्होंने अपने मुख में प्रवेश करता एक मदोन्मत्त हाथी देखा । १२६ प्रातःकाल महारानी ने महाराज जितशत्रु से इन स्वप्नों का फल पूछा तथा अपने गर्भ में तीर्थंकर के अवतीर्ण होने के बारे - में ज्ञान प्राप्त किया । 1 माघशुक्ल दशमी के दिन महारानी विजयसेना ने बालक को जन्म " दिया । सुन्दर शरीर के धारक भावी तीर्थंकर का देवों ने मेरुपर्वत पर ले जाकर जन्माभिषेक कल्याणक किया और उनका नाम अजितनाथ रखा । १२७ श्वेताम्बर परम्परा में तीर्थंकरों का नामकरण दिगम्बर परम्परा के समान इन्द्र द्वारा न होकर अन्य किसी कारण से हुआ । अजितनाथ के नामकरण के सम्बन्ध में उल्लेख है कि जब से वे माता विजया के गर्भ में आए, राजा जितशत्रु को कोई जीत नहीं सका । - इसलिये माता-पिता ने बालक का नाम अजितनाथ रखा । अजितनाथ की आयु बहत्तर लाख पूर्व की तथा शरीर चार सौ पचास धनुष ऊँचा था । सभी तीर्थंकरों की आयु व शरीर की ऊँचाई का विवरण 'पूर्व' व 'धनुष' के रूप में दिया गया है । हरिवंशपुराण में इसकी व्याख्या इस प्रकार है - एक लाख वर्ष में चौरासी का गुणा करने पर एक पूर्वाङ्ग होता है । चौरासी लाख पूर्वाङ्गों का एक पूर्व होता है । १२८ इसी प्रकार छह अंगुलों का एक पाद, दो पादों की एक वितस्ति, दो वितस्तियों का एक हाथ, दो हाथों का एक किष्कु तथा दो किष्कुओं का एक दण्ड अथवा धनुष होता है । १२९ २४ तीर्थंकरों की आयु व शरीर की ऊँचाई इत्यादि क्रम-क्रम से घटती दिखलायी देगी जो अवसर्पिणी काल की एक प्रमुख विशेषता रही है । बहुत समय तक राज्य का उपभोग करने के बाद जब एक दिन अजित महल की छत पर बैठे थे वहीं उन्होंने बहुत भारी उलका देखी । उसी समय से उन्हें इस संसार के प्रति विरक्ति उत्पन्न हो गयी । लौकान्तिक देवों ने ब्रह्मस्वर्ग से आकर उनके विरक्तिपूर्ण विचारों की प्रशंसा की । अजित ने अपने पुत्र अजितसेन को राज्य देकर स्वयं सहेतुक वन में सप्तपर्ण वृक्ष के समीप एक हजार अन्य राजाओं के साथ दीक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002115
Book TitleJain Mahapurana Kalaparak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumud Giri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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