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________________ ६४ : जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन 43 की विभिन्न प्रकार से परिचर्या करने के लिये दिक्कुमारियों के आने, इन्द्र द्वारा विभिन्न देवों के साथ आकर जन्मकल्याणक करने तथा उस अवसर पर इन्द्र द्वारा ३२ प्रकार के नृत्य आदि के उल्लेख विस्तार के साथ मिलते हैं । कुमारावस्था में तीर्थंकरों का विवाह किसी राजकुमारी के साथ होने का सन्दर्भ प्राप्त होता है । किन्तु सभी तीर्थंकरों के विवाह का उल्लेख नहीं मिलता । दिगम्बर परम्परा के अनुसार महावीर का विवाह नहीं हुआ था जबकि श्वेताम्बर परम्परा में विवाह का वर्णन उपलब्ध है । ५४ ऐसे ही नेमिनाथ विवाह के लिए जाते हुए मार्ग से बिना विवाह किये ही लौट गये थे । प्रस्तुत दृश्य शिल्पांकन ११वीं शती ई० के कुम्भारिया के महावीर और शान्तिनाथ मन्दिरों के वितानों पर हुआ है। कुछ समय तक राज्य का उपभोग करने के बाद किसी न किसी कारण से सभी तीर्थंकरों के मन में संसार के प्रति विरक्ति का भाव उत्पन्न होने और ऐसे समय लौकान्तिक देवों के आने एवं इन्द्र द्वारा दीक्षाकल्याणक करने का उल्लेख मिलता है । ५५ अनेक वर्षों तक कठोर तपश्चर्या के बाद किसी वृक्ष ( जिसे चैत्य -- वृक्ष कहा गया है ) के नीचे तीर्थंकर द्वारा केवलज्ञान की प्राप्ति तथा सौधर्म इन्द्र का अन्य देवों के साथ आकर उनके ज्ञानकल्याणक का आयोजन एवं उनके प्रथम उपदेश ( धर्मदेशना ) को सुनने के लिये देवों द्वारा समवसरण ( उपदेश स्थली ) के निर्माण का उल्लेख भी जैन साहित्य में विस्तार के साथ मिलता है । ६ आदिपुराण एवं उत्तरपुराण में भी विभिन्न तीर्थंकरों के समवसरण का विस्तारपूर्वक उल्लेख हुआ है जिसके मूर्त उदाहरण विभिन्न श्वेताम्बर और दिगम्बर स्थलों पर देखे जा सकते हैं । कुछ वर्षों तक विभिन्न स्थानों पर भ्रमण करने, धर्म का उपदेश देने तथा जैन तीर्थ अथवा संघ की स्थापना करने के बाद समस्त बन्धनों को तोड़कर उन्हें निर्वाण की प्राप्ति होती है । इस अवसर पर पुनः इन्द्र के अनेक देवों के साथ आने व तीर्थंकर के निर्वाणकल्याणक के सम्पादन का उल्लेख जैन ग्रन्थों में मिलता है । ५७ वृषभसेन, चन्द्रानन, वारिसेण तथा वर्धमान इन चार तीर्थंकरों को शाश्वत् जिन कहा गया है क्योंकि प्रत्येक उत्सर्पिणी अथवा अवर्सापणी युग में इन चार तीर्थंकरों के नाम अवश्य आते हैं । इनका उल्लेख जीवाजीवाभिगमसूत्र "" में मिलता है । ऋषभनाथ, शान्तिनाथ, मुनि - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002115
Book TitleJain Mahapurana Kalaparak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumud Giri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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