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________________ तीर्थकर (या जिन) : ६३ साथ ही २४ तीर्थंकरों के यक्ष-यक्षी एवं लांछनों का भी अभिलक्षण 'मिलता है। जैन आगमग्रन्थ औपपातिकसूत्र५ में महावीर के सन्दर्भ में महापुरुष लक्षणों तथा श्रीवत्स का विस्तार से उल्लेख मिलता है। पउमचरिय में ऋषभदेव को श्रीवत्स से लक्षित बताया गया है ।४६ मथुरा की शुंगकालीन जिन आकृति ( आयागपट पर ), लोहानीपुर (पटना) से प्राप्त मौर्य-शुंग कालीन जिन प्रतिमाओं तथा प्रिंस ऑव वेल्स संग्रहालय, बम्बई की पार्श्वनाथ की कायोत्सर्ग कांस्य प्रतिमा ( ल० पहली शती ई० पू० ) में श्रीवत्स चिह्न का अंकन नहीं हुआ है। आगे चलकर मथुरा में कुषाणकाल में वैष्णव धर्म के प्रभाव के फलस्वरूप जिन मतियों में श्रीवत्स का अंकन प्रारम्भ हुआ।४७ यह भी सम्भव है कि तीर्थंकर और बुद्ध की आसन मूर्तियों में स्वरूपगत समानता के कारण उनमें भेद के उद्देश्य से श्रीवत्स चिह्न का अंकन प्रारम्भ हुआ। जैनधर्म के दोनों ही परम्पराओं में २४ जिनों से सम्बन्धित विवरणों में अधिकांश बातें, जैसे पंचकल्याणक आदि समान हैं। श्वेताम्बर एवं 'दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं के अनुसार २४ जिनों का जन्म क्षत्रिय राज्य परिवारों में हुआ। दिगम्बर परम्परा के अनुसार मुनिसुव्रत तथा नेमिनाथ का हरिवंश, धर्म, अर एवं कुन्थु का कुरुवंश, पार्श्व व महावीर का अग्रवंश तथा अन्य का जन्म इक्ष्वाकुवंश में हुआ। किन्तु श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार केवल मुनिसुव्रत और नेमिनाथ का हरिवंश में तथा अन्य का अन्य इक्ष्वाकु वंश में हुआ था ।४९ तीर्थंकरों के गर्भ में आने पर जिनमाताओं द्वारा शुभस्वप्नों के देखने का उल्लेख दोनों ही परम्पराओं में हुआ है किन्तु दिगम्बर परंपरा में इन शुभस्वप्नों की संख्या १६ तथा श्वेताम्बर में १४ बतायी गयी है।५० कला में भी इन शुभस्वप्नों की अभिव्यक्ति हुई है। ल० १०वीं शती ई० से दिगम्बर परम्परा में खजुराहो के पार्श्वनाथ, आदिनाथ, घंटई तथा देवगढ़ मन्दिरों के प्रवेशद्वारों पर एवं श्वेताम्बर परम्परा में कुंभारिया के शान्तिनाथ एवं महावीर मन्दिरों और देलवाड़ा के विमलवसही और लणवसही के वितानों पर उत्कीर्ण तीर्थंकरों के जीवन दृश्यों के अंकन में क्रमशः १६ और १४ मांगलिक स्वप्नों का अंकन हुआ है।५१ हरिवंशपुराण एवं आदिपुराण में १६ शुभ स्वप्नों की विस्तृत सूची भी वर्णित है ।५२ तीर्थंकरों के जन्म पर जिन-माताओं एवं जिनशिशुओं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002115
Book TitleJain Mahapurana Kalaparak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumud Giri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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