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जैन देवकुल : ४९
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दण्डाध्यक्षगण, दण्डभूतसंहस्त्रक, भद्रकाली, महाकाली, काली एवं कालमुखी आदि विद्याओं का उल्लेख हुआ है । उत्तरपुराण में कई अलगअलग सन्दर्भों में अनेक विद्याओं का नामोल्लेख है जिनमें गरुडवाहिनी एवं सिंहवाहिनी पूर्वपरम्परा ( पउमचरिय) की लोकप्रिय विद्याएँ हैं जिनसे क्रमशः अप्रतिचक्रा एवं महामानसी विद्यादेवियों का आविर्भाव हुआ । हनुमान एवं सुग्रीव द्वारा राम-लक्ष्मण को कई विद्याएँ देने और अमिततेज ( विद्याधरों के इन्द्र एवं शांतिनाथ जिन के समकालीन ) द्वारा विभिन्न विद्याओं की सिद्धि के सन्दर्भ में कामरूपिणी, उत्पादिनी, वशकीरणी, मातंगी, चाण्डाली, गौरी, रोहिणी, मनोवेगा, वेताली, महाज्वाला, बन्धमोचिनी, प्रज्ञप्ति, भ्रामरी, गरुडवाहिनी, सिंहवाहिनी विद्याओं के उल्लेख परवर्ती १६ महाविद्याओं की सूची निर्धारण की दृष्टि से महत्त्व - पूर्ण है । ११८ १६ महाविद्याओं की सूची में अधिकांशतः पूर्ववर्ती ग्रन्थों में उल्लिखित विद्याएँ ही सम्मिलित हैं । ११९ विजयपहुत्त ( मानदेवसूरिकृत, ९वीं शती ई० ), संहितासार ( इन्द्रनन्दिकृत ९३९ ई० ) तथा स्तुतिचतुर्विंशतिका ( शोभनमुनिकृत - ल० ९७३ ई० ) में १६ महाविद्याओं की प्रारम्भिक सूची प्राप्त होती है जिसे बाद में उसी रूप में स्वीकार कर लिया गया । १२० १६ महाविद्याओं की सूची में निम्नलिखित नाम मिलते हैं : रोहिणी, वज्रश्रृंखला, वज्रांकुशा, चक्रेश्वरी या अप्रतिचक्रा, नरदत्ता या पुरुषदत्ता, काली या कालिका, महाकाली, गौरी, गान्धारी, सर्वास्त्रमहाज्वाला या ज्वाला ( ज्वालामालिनी - दिगम्बर ), मानवी, वैरोट्या ( वै रोटी - दिगम्बर), अच्छुप्ता ( अच्युता - दिगम्बर), मानसी तथा महामानसी । १२१
१६ महाविद्याओं का अंकन विशेषरूप से राजस्थान एवं गुजरात में लोकप्रिय था । ९वीं शती ई० के बाद गुजरात ( कुंभारिया, देलवाड़ा ) एवं राजस्थान (ओसियाँ ) के श्वेताम्बर जैन मन्दिरों पर महाविद्याओं का नियमित अंकन प्राप्त होता है । १६ महाविद्याओं के सामूहिक उकेरन के उदाहरण कुम्भारिया, बनासकांठा, (गुजरात) के शान्तिनाथ मन्दिर ( ११वीं शती ई० ), विमलवसही ( १२वीं शती ई० ) एवं लूणवसही ( रंगमंडप, १२३० ई० ) से प्राप्त होते हैं । १२२
राम और कृष्ण :
वसुदेवहिण्डी, पद्मपुराण, कहावली, उत्तरपुराण, ' १२३ महापुराण ( पुष्पदन्तकृत - ९६५ ई०), पउमचरिय ( स्वयम्भूदेवकृत - ९७७ ई० )
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