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जैन देवकुल : ४३
महाभारत विषयक पौराणिक महाकाव्यों में जिनसेनकृत हरिवंश - पुराण ( ७८३ ई०), देवप्रभसूरिकृत पाण्डवचरित ( १२१३ ई० ), भट्टारक शुभचन्द्रकृत पाण्डवपुराण ( १५५१ ई० ) प्रमुख हैं । " १०वीं से १३वीं शती ई० के मध्य तीर्थंकरों, चक्रवर्तियों, बलदेवों, वासुदेवों आदि के जीवनचरित से संबंधित स्वतंत्र ग्रन्थ पर्याप्त संख्या में लिखे गये । ९९ इनमें मुख्य रूप से ऋषभ, सुमति, सुपार्श्व, धर्म, वासुपूज्य, शान्ति, नेमि, पार्श्व एवं महावीर के ऊपर अधिक चरित ग्रन्थ लिखे गये । १०० इनके अतिरिक्त १२ चक्रवर्ती तथा अन्य शलाकापुरुषों पर जो स्वतंत्र रचनाएँ हुई उनमें भरतेश्वराभ्युदयकाव्य ( आशाधरकृत ), सनत्कुमारचरित ( श्री चन्द्रसूरिकृत ), सुभौम चरित ( भट्टारक - रत्नचन्द प्रथम ), कृष्णचरित ( देवेन्द्रसूरि ) प्रमुख हैं । १०१ इनके अतिरिक्त चतुर्विंशतिका (बप्पभट्टिसूरिकृत - ७४३ - ८३८ ई०), निर्वाणकलिका (ल० ११वीं-१२वीं शती ई०), प्रतिष्ठासारसंग्रह ( १२वीं शती ई० ), मन्त्राधिराजकल्प ( ल० १२वीं शती ई० ), त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, चतुर्वि - शति - जिनचरित्र ( अमरचन्दसूरि - १२४१ ई० ), प्रतिष्ठासारोद्धार ( १३वीं शती ई० का पूर्वार्ध), प्रतिष्ठातिलकम ( १५४७ ई० ) एवं आचारदिनकर (१४१२ ई०) जैसे प्रतिमा लाक्षणिक ग्रन्थों की भी रचना हुई जिनमें प्रतिमा निरूपण से सम्बन्धित विस्तृत उल्लेख हैं । १०२ ० छठी से १०वीं शती ई० के मध्य जैन देवकुल के देवों की संख्या एवं उनके धार्मिक कृत्यों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। परवर्ती युग में जैन देवकुल में २४ जिनों और उनके यक्ष-यक्षी युगलों (गासन देवताओं ) अन्य ३९ शलाकापुरुष, १६ महाविद्या, अष्टदिक्पाल, नवग्रह, क्षेत्रपाल, गणेश, ब्रह्मशान्ति एवं कर्पा यक्ष, ६४ योगिनी ( आचारदिनकर ), शान्ति देवी, जिनों के माता-पिता एवं भरत, बाहुबली आदि सम्मिलित थे । इसी अवधि में इन देवों की स्वतंत्र लाक्षणिक विशेषताएँ भी निर्धारित हुई । १०३
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यक्ष-यक्षी :
ल० ६ठी शती ई० में जिनों के साथ यक्ष-यक्षी युगलों (शासनदेवताओं) की धारणा का विकास हो चुका था । १०४ ये यक्ष यक्षी जिनों के सेवक के रूप में संघ की रक्षा करते हैं । १०५ यक्ष- यक्षी युगल से युक्त प्राचीनतम जिन मूर्ति छठी शती ई० की है । | १०६ ल० आठवीं-नवीं शती ई० तक २४ जिनों के स्वतंत्र यक्ष- यक्षी युगलों की सूची निर्धारित हो
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