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________________ ३८ : जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन आगम या श्रुत के रूप में जानी जाती थीं और सम्भवतः इसी कारण जैन आगमिक ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती के हाथ में पुस्तक के प्रदर्शन की परम्परा आरम्भ हुई।४३ सरस्वती का लाक्षणिक स्वरूप आठवीं शती ई० के बाद के जैन ग्रन्थों में विवेचित हुआ। जैन शिल्प में यक्षी अम्बिका एवं चक्रेश्वरी के बाद सरस्वती ही सर्वाधिक लोकप्रिय थीं। जैन शिल्प में सरस्वती की प्राचीनतम ज्ञात मूर्ति कुषाणकाल (१३२ ई० ) की है जिसमें देवी के एक हाथ में पुस्तक प्रदर्शित है।४४ इन्द्र: जैन परम्परा में इन्द्र को जिनों का प्रधान सेवक स्वीकार किया गया है। स्थानांगसूत्र में नामेन्द्र, स्थापनेन्द्र, द्वव्येन्द्र, ज्ञानेन्द्र, दर्शनेन्द्र, चारित्रेन्द्र, असुरेन्द्र और मनुष्येन्द्र आदि कई इन्द्रों के उल्लेख हैं।४५ ग्रन्थ में यह भी उल्लेख है कि जिनों के जन्म, दीक्षा तथा कैवल्य प्राप्ति के अवसरों पर देवेन्द्र का पृथ्वी पर शीघ्रता से आगमन होता है ।४६. कल्पसूत्र में इन्द्र ( शक्र ) का उल्लेख वज्र धारण करने वाले तथा ऐरावत गज पर आरूढ़ देवता के रूप में हुआ है।४७ पउमचरिय में इन्द्र द्वारा जिनों के जन्माभिषेक करने तथा कैवल्य प्राप्ति के पश्चात् समवसरण के निर्माण का उल्लेख मिलता है।४८ ग्यारहवीं-बारहवीं शती ई० में जिनों के जीवनवृत्तों के अंकन के सन्दर्भ में इन्द्र को सर्वत्र आमूतित किया गया ।४९ नेगमेषी: जैन देवकुल में अजमुख नैगमेषी (या हरिनैगमेषी या हरिणैगमेषी ) का उल्लेख इन्द्र के पदाति सेना के सेनापति के रूप में हुआ है ।५० अन्तगड्दसाओ एवं कल्पसूत्र में नैगमेषी को बालकों के जन्म से भी सम्बन्धित बताया गया है। कल्पसूत्र में उल्लेख है कि शक्रेन्द्र ने महावीर के भ्रूण को ब्राह्मणी देवानन्दा के गर्भ से क्षत्रियाणी त्रिशला के गर्भ में स्थापित करने का कार्य अपनी पदाति सेना के अधिपति हरिण-- गमेषी देव को दिया था।५१ इसी प्रकार अन्तगड्दसाओ में पुत्र प्राप्ति के लिये हरिनैगमेषो के पूजन और प्रसन्न होकर देवता द्वारा अपने गले का हार देने के उल्लेख हैं ।५२ उपर्युक्त परम्परा के कारण ही जैन शिल्प में नैगमेषी के साथ लम्बा हार एवं बालक प्रदर्शित हुए । मथुरा . से नैगमेषी की कई कुषाणकालीन स्वतंत्र मूर्तियाँ मिली हैं ।५3 कुम्भा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002115
Book TitleJain Mahapurana Kalaparak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumud Giri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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