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जन देवकुल : ३९ रिया, देलवाड़ा एवं अन्य स्थलों पर तीर्थंकरों के जीवन दृश्यों में जन्माभिषेक के प्रसंग में भी नैगमेषी का उकेरन हुआ है। यक्ष:
प्राचीन भारतीय साहित्य में यक्षों का उल्लेख उपकार या अपकार के कर्ता के रूप में है। कूमारस्वामी के अनुसार यक्षों व देवों के बीच कोई विशेष भेद नहीं था और यक्ष शब्द देव का समानार्थी था ।५४ जैन ग्रन्थों में भी यक्षों का उल्लेख अधिकांशतः देवों के ही रूप में हुआ है ।५५ उत्तराध्ययनसूत्र में उल्लेख है कि संचित सत्कर्मों के प्रभाव को भोगने के बाद यक्ष पुनः मनुष्य रूप में जन्म लेते हैं ।५६ भगवतीसूत्र में वैश्रमण के प्रति पुत्र के समान आज्ञाकारी १३ यक्षों की सूची दी है जिनके नाम-पुन्नभद्द, मणिभद्द, शालिभद्द, सुमणभद्द, चक्क, रक्स, पुण्णवख, सव्वन, सव्वजस, समिध्ध, अमोह, असंग तथा सव्वकाम हैं ।५७ इसी प्रकार तत्त्वार्थसूत्र ( उमास्वातिकृत) में भी एक स्थल पर १३ यक्षों की सूची है जिनके नाम-पूर्णभद्र, मणिभद्र, सुमनोभद्र, श्वेतभद्र, हरिभद्र, व्यतिपातिकभद्र, सुभद्र, सर्वतोभद्र, मनुश्ययक्ष, वनाधिपति, वनाहार, रूपयक्ष तथा यक्षोतम हैं ।५८ जैन आगमों में विभिन्न स्थलों के चैत्यों का उल्लेख है जहाँ महावीर विश्राम करते थे। उनमें पूर्णभद्र, बहुपुत्रिका तथा गुणशिल जैसे चैत्यों का उल्लेख निश्चित ही यक्ष चैत्यों से सम्बन्धित है।५९ जैन ग्रन्थों में यक्ष का निरूपण जिनों के चामरधारी सेवक के रूप में भी हुआ है ।६॥ जैन ग्रन्थों में मणिभद्र, पूर्णभद्र यक्ष तथा बहुपुत्रिका यक्षी को विशेष महत्त्व दिया गया है।६१ पउमचरिय में पूर्णभद्र तथा मणिभद्र यक्षों का शान्तिनाथ के सेवक के रूप में उल्लेख है ।६२ भगवतीसूत्र में बहुपुत्रिका को मणिभद्र व पूर्णभद्र यक्षेन्द्रों की चार प्रमुख रानियों में एक बताया गया है।६३ यू० पी० शाह के अनुसार जैन देवकुल के प्राचीनतम यक्ष-यक्षी सर्वानुभूति (या मातंग या गोमध )६४ और अम्बिका की कल्पना निश्चित रूप से मणिभद्र-पूर्णभद्र, यक्ष तथा बहुपुत्रिका यक्षी के पूजन की प्राचीन परम्परा आधारित है।६५ विद्यादेवियाँ:
विद्याओं के नामों एवं लाक्षणिक स्वरूपों की धारणा प्रारम्भिक ग्रन्थों में प्राप्त होती है। ये वस्तुतः तांत्रिक देवियाँ थीं। यू० पी० शाह
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