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________________ जैन देवकुल : ३५ चौबीस जिनों को धारणा : __ चौबीस जिनों की धारणा जैनधर्य को धुरी है। जैन देवकुल के अन्य देवों की कल्पना सामान्यतः इन्हीं जिनों से सम्बद्ध व उनके सहायक देवों के रूप में हुई है । जिनों को देवाधिदेव और इन्द्र आदि देवों द्वारा वन्दनीय कहा गया है। इनका जीव भी अतीत में सामान्य व्यक्ति की तरह वासना व कर्मबन्धन में लिप्त था पर, आत्ममनन, साधना एवं तपश्चर्या के परिणामस्वरूप उसने कर्मबन्धन से मुक्त होकर केवलज्ञान की प्राप्ति की। कर्म एवं वासना पर विजय प्राप्त करने के कारण इन्हें 'जिन' (विजेता ) कहा गया। कैवल्य प्राप्ति के पश्चात साधु-साध्वियों एवं श्रावक-श्राविकाओं के सम्मिलित तीर्थ की स्थापना करने के कारण इन्हें 'तीर्थंकर' भी कहा गया ।१० २४ जिनों की प्राचीनतम सूची समवायांगसूत्र ( चौथा अंग ) में प्राप्त होती है। इस सूची में ऋषभ, अजित, सम्भव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्व, चन्द्रप्रभ, सुविधि ( पुष्पदन्त), शीतल, श्रेयांश, वासपूज्य, विमल, अनंत, धर्म, शांति, कुन्थु और मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पार्श्व एवं वर्धमान के नाम हैं ।११ भगवतीसूत्र ( पाँचवाँ अंग )१२, कल्पसूत्र, चतुर्विंशतिस्तव या लोगस्ससुत्त-(भद्रबाहुकृत)१४ एवं पउमचरिय१५ में भी २४ जिनों की उपर्युक्त सूची ही प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त भगवतीसूत्र में मुनिसुव्रत, नायाधम्मकहाओ में नारी तीर्थंकर मल्लिनाथ एवं कल्पसूत्र में ऋषभ, नेमि ( अरिष्टनेमि ), पार्श्व एवं महावीर के जीवन से सम्बन्धित घटनाओं के विस्तृत उल्लेख भी मिलते हैं । १६ इस प्रकार स्पष्ट है कि २४ जिनों की सूची ईसवी सन् के प्रारम्भ के पूर्व ही निर्धारित हो चुकी थी। विद्वान् २४ जिनों में केवल अन्तिम दो जिनों पार्श्वनाथ एवं महावीर ( या वर्धमान ) को ही ऐतिहासिक मानते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र (अध्याय २३ ) में पार्श्वनाथ एवं महावीर के दो शिष्यों, केसी और गौतम, के मध्य जैन संघ के सम्बन्ध में उनके वार्तालाप का जो उल्लेख है तथा महावीर की यह युक्ति कि 'जो कुछ पूर्व तीर्थंकर पार्श्व ने कहा है मैं वही कह रहा हूँ'१९, पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता सिद्ध करते हैं। शलाकापुरुष : प्रारम्भिक ग्रन्थों में २४ जिनों के अतिरिक्त अन्य शलाका ( या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002115
Book TitleJain Mahapurana Kalaparak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumud Giri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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